देते है आशीष वे, सर पर रखते हाथ
मन में श्रद्धा भाव हो, तभी श्राद्ध यथार्थ |
तभी श्राद्ध यथार्थ, सभी है उनकी माया
समझों वे है साथ, मिले उनकी ही छाया
मिले सभी संस्कार संज्ञान में जो लेते
माने हम उपकार, पूर्वज ख़ुशी ही देते |
(2)
देवर हो लक्ष्मण तभी, सीता दे वर माथ
माँ का हो आशीष तो मिले जगत का साथ |
मिले जगत का साथ, साथ में प्रभु की छाया
भ्राता से हो प्यार, सुखो का घर में साया
घर का हो कल्याण दिखता न कोई तेवर
पाकर सुन्दर सीख बने जो काबिल देवर |
(मौलिक व् अप्रकाशित)
-लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला
Comment
छंद पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार श्री गिरिराज भंडारी जी एवं श्री (डॉ) अनुराग सैनी जी | सादर
उचित सुझाव हेतु धन्यवाद एवं कुंडलिया छंद सामयिक बता सराहने की लिए हार्दिक आभार भाई श्री रविकर जी
आदरणीय दोनों ही कुण्डलिया छंद बहुत ही सुन्दर बन पड़े हैं इस हेतु बधाई स्वीकारें. आदरणीय प्रथम कुण्डलिया में दोहे का प्रथम चरण स्पष्ट नहीं लगा और द्वतीय कुण्डलिया में रोला एक एक चरण में मात्रा अधिक हो रही जो कि इस प्रकार है.
1. पूर्वज दे आशीष ही .. आदरणीय कुछ अटपटा सा लग रहा है
२. घर का हो कल्याण दिखावे न कोई तेवर (यहाँ मात्रा 14 हो रही है कृपया पुनः देख लें)
समसामयिक और प्रभावी ! शब्दों के क्रम को दुरुस्त कर दें ! आभार
आदरणीय लक्ष्मण भाई , बहुत अच्छी सामयिक छंद की रचना की !! बधाई
पहली कुण्डलियाँ की प्रथम पंक्ति ऐसे कर लें-
देते हैं आशीष वे , सर पर रखते हाथ |
सादर
माने हम उपकार, ख़ुशी ही पूर्वज देते |
पहली में शब्द आगे पीछे करना है-
दूसरी कुंडलियाँ में
सुयोग्य को काबिल कर पढ़ें आदरणीय-
शुभकामनायें सामायिक कुंडलियाँ छंद हेतु-
सादर
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