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"रमल मुसम्मन महजूफ"
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जिंदगी तू ही बता दे जुस्तजू क्या है
इक निवाले के सिवा अब आर्ज़ू क्या है
ख़ास जोरोजर समझते हैं जहाँ खालिस
या खुदा उनके लिए इक आबरू क्या है
नफ़रतों का जो जहर यूँ बारहा पीते
अम्न क्या है और उनकी गुफ़्तगू क्या है
फितरतें ताने जनी ही है सदा जिनकी
बाद क्या उनकी नजर में रूबरू क्या है
कीमते फ़न की नजर में ही नहीं जिनकी
गीत या उनके लिए ऐ नज्म तू क्या है
जो नहीं रखते अक़ीदत या अदब दिल में
वो समझते ही नहीं यारब गुरु क्या है
टीसते दिल से टपकता तो बहुत देखा
जो न टपका सरहदों पे वो लहू क्या है
लाख सागर हैं यहाँ ऐ "राज" पीने को
पर जिसे लब छू न पायें वो सबू क्या है
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जोर ओ जर =शक्ति और धन
फ़न =कला
बारहा =हमेशा , अनेक बार ,बहुदा
ख़ालिस =केवल
सबू =मदिरा का मटका
सागर =पैमाने
अकीदत =श्रद्धा,आस्था
अदब =तहजीब
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
प्रिय प्राची जी आपने सच कहा है आपने जो ग़ज़ल पढ़ी थी वो सच में रा मेटीरियल ही थी आदरणीय वीनस जी के मार्ग दर्शन से इसमें कुछ संशोधन किये हैं अब आपकी प्रतिक्रिया चाहूंगी सस्नेह
संशोधित करके भी डर रही थी आदरणीय वीनस जी अब आपकी प्रतिक्रिया पढ़ कर जान में जान आई मार्ग दर्शन के लिए दिल से शुक्रिया.इसी तरह मार्ग दर्शन करते रहिये.
बहुत सुन्दर आदरणीया राजेश जी
नफ़रतों का जो जहर यूँ बारहा पीते
अम्न क्या है और उनकी गुफ़्तगू क्या है......वाह! बहुत खूब
टीसते दिल से टपकता तो बहुत देखा
जो न टपका सरहदों पे वो लहू क्या है......यह शेर बहुत पसंद आया
बेहतरीन गजल, दाद कुबूल कीजिये आदरणीया राजेश जी
आदरणीया राजेश जी
कहन तो बेशक बहुत उम्दा है पर मुझे भी इस लय में मिठास कम लगी ....
सादर शुभकामनाएं
जी वीनस जी जू की बंदिश से ही मेरा भी तात्पर्य था किन्तु आपने तो इसका बहुत अच्छा निवारण सुझाया है दिल से शुक्रिया आपका इस ग़ज़ल को आपके परामर्श के अनुसार वक़्त मिलते ही एडिट करती हूँ आपने एक गुरु का फ़र्ज निभाते हुए मार्ग दर्शन किया बहुत- बहुत शुक्रिया अब निम्नलिखित शब्दों की मात्राएँ गणना के लिए प्रदत्त लिंक पर जाती हूँ सच बताऊँ हाल में ही एक ग़ज़ल पुस्तक पढ़ी थी जिससे ये भ्रम पैदा हुआ और मैंने उसी तरह शब्द विच्छेद कर मात्राएँ लिख ली
बहर को लेकर मेरा आपसे ये निवेदन था कि आप इस ग़ज़ल की बहर को २१२२ / २१२२ /१२२२ से बदल कर २१२२ / २१२२ / २१२२ / २ कर लें तो ग़ज़ल में ले कई गुना बढ़ जाएगा जिससे पढ़ने वालों को लुत्फ़ मिलेगा आपको भी ग़ज़ल पहले से अच्छी लगेगी
इसके लिए मैंने ग़ज़ल के मतला में बदलाव करके एक उदाहरण भी प्रस्तुत किया था
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अग्र लिखित शब्दों के लिए यह कहना है कि आपने इनको गलत वजन में बाँध लिया है
जोर ओ जर - २१२२
कद्र-ओ- फ़न - २१२२
घुंघरू - २१२
जख्म -ए -दिल - २१२२
ये सभी मात्राएं बिलकुल गलत हैं इनके सही स्वरूप को जानने के लिए आप ये लेख देखिये इसमें विस्तार से चर्चा किया गया है .. इतने विस्तार से यहाँ बता पाना संभव नहीं है
www.openbooksonline.com/group/gazal_ki_bateyn/forum/topics/5170231:...
सादर
आदरणीया मुझे नहीं समझ आया कि आपने मतले में क्या त्रुटि देख ली है
मैं अपनी बात को और विस्तार से कहता हूँ तो स्पष्ट हो जाएगा
काफिया में आरजू जुस्तजू लिखने पर हमें हिदी के अनुसार आगे के हर्फे कवाफी में जू की बंदिश लेनी होगी जो आपने नहीं ली है और इस अनुसार आपको मतला के कवाफी को बदलना होगा जिससे आगे के अशआर में उपयोग हुए कवाफी सही हो जाएँ
मगर आपने जिस तरह उर्दू व्याकरण में उपयोग होने वाले वाव अत्फ और इज़ाफत का इस्तेमाल किया है इसे हिन्दी ग़ज़ल कहना सही नहीं होगा अब देखें कि क्या उर्दू के अनुसार इस ग़ज़ल के कवाफी सही हैं ?
जुस्तजू में ज जीम है जिसमें नुक्ता नहीं होता आरज़ू में ज ज़े है जिसमें नुक्ता होता है इस अनुसार आपके मतला के कवाफी में उपयोग हुए ज और ज़ दो अलग अलग हर्फ़ हैं और इस कारण हमें छूट मिलती है कि हम आगे के अशआर में केवल ऊ स्वर को निभाए और आपने यही किया है, उर्दू के अनुसार आपके काफिया बंदिश में कोई दोष नहीं है मगर ये बात उर्दू न जानने वालों को स्पष्ट हो सके इसलिए किये जरूरी है कि ज और ज़ के अंतर को स्पष्ट किया जा सके और इसके लिए आपको इतना भर करना है कि मलता में आरजू को हटा कर आर्ज़ू लिख दीजिए
बस मैंने यही कहने का प्रयास किया था
सदा स्वागत आदरणीया आपसे सहमत हूँ ! सादर अभिवादन !!
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