ठीक जगह पर देख भाल के बैठा हूँ।
मैं अपनी कुर्सी संभाल के बैठा हूँ।
तीसमारखाँ बहुत बना फिरता था वो ,
मैं उसकी पगड़ी उछाल के बैठा हूँ।
दुष्मन से बदला लेने की खातिर मैं
आस्तीन में साँप पाल के बैठा हूँ।
संसद की गरिमा से क्या लेना-देना ,
संसद में जूता निकाल के बैठा हूँ।
कौन समस्यायें जनता की रोज सुने ,
अपने कान में रूर्इ डाल के बैठा हूँ।
ऐरा गैरा नत्थू खैरा मत समझो ,
सारी दुनिया मैं खंगाल के बैठा हूँ।
मौलिक अप्राकिषत एवं अप्रसारित
Comment
वाह अवधेश भाई , बेहतरीन ग़ज़ल ///बधाई ।
आदरणीय राम अवध जी, बहुत सुन्दर रचना ....मन को भा गई | ढेरों बधाई
विशेषकर..
"संसद की गरिमा से क्या लेना-देना ,
संसद में जूता निकाल के बैठा हूँ।
कौन समस्यायें जनता की रोज सुने ,
अपने कान में रूर्इ डाल के बैठा हूँ। "... ये चार पंक्तियाँ ज्यादा अच्छी लगी |
बहुत खूब !!
भ्रस्ट नेता / अफसर की यही सच्चाई है । राम अवध भाई बधाई ।
कौन समस्यायें जनता की रोज सुने ,
अपने कान में रूर्इ डाल के बैठा हूँ।................ बहुत खूबसूरत , आज के नेताओं पर सीधा प्रहार , बहुत बधाई आपको आ0 राम अवध जी ।
आदरणीय राम अवध जी बेहद शानदार ग़ज़ल कही है आपने पढ़कर मजा आया सभी अशआर खूबसूरत बन पड़े हैं गुजारिश है कि यदि ग़ज़ल को बहर के साथ पोस्ट करेंगे तो समझने में आसानी होगी. इस बेहतरीन ग़ज़ल पर दाद कुबूल फरमाएं.
ठीक जगह पर देख भाल के बैठा हूँ।
मैं अपनी कुर्सी संभाल के बैठा हूँ।
वाह वा क्या कहने ... शानदार मतला ,,, बेहतरीन ग़ज़ल .... ढेरो दाद
ऐरा गैरा नत्थू खैरा मत समझो ,
सारी दुनिया मैं खंगाल के बैठा हूँ।
............... समझ गया साहिब वाह कमाल का तेवर है आपका ..इस प्रहारक ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई और अनंत शुभकामनायें श्री राम अवध जी !
निवेदन~ बहर साथ लिख कर दीजिये ताकि ......!
सादर !!
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