कहकशाँ में उठ रही लहरों की बातें क्या करें
इस गुबारे-गर्द में सहरों की बातें क्या करें
हर कोई पहने मुखौटे फिर रहा है जब यहाँ
फिर बताओ हम भला चेहरों की बातें क्या करें
इस कदर मसरूफ हैं पाने को नाम औ शोहरतें
वक़्त इक पल का नहीं पहरों की बातें क्या करें
तुक मिलाने को समझ बैठा जो शाइर शाईरी
नासमझ से वजन औ बहरों की बातें क्या करें
नफरतें हैं वहशतें हैं दहशतें हैं राह में
हर घडी है गमजदा कहरों की बातें क्या करें
आँख का पानी हवा में उड़ गया है “दीप” तब
बैठ बंजर खेत में नहरों की बातें क्या करें
संदीप पटेल “दीप”
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
एक सुन्दर और क़ामयाब कोशिश ..
बधाई लें, आदरणीय संदीप भाईजी
बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है .. खास कर आख़िरी के शेर बहुत अच्छे बन पड़े हैं
हार्दिक बधाई
एक जगह आपका ध्यान आकर्षित करवाना चाहता हूँ
इस गुबारे-गर्द में सहरों की बातें क्या करें
मेरी जानकारी में सही लफ़्ज़ सहराओं होना चाहिए सहरों स्वीकार्य नहीं है
आदरणीय मित्रवर अरुण भाई साहब
इस सराहना हेतु बहुत बहुत आभार आपका स्नेह यूँ ही बनाये रखिये
वाह वाह मित्रवर वाह वाह लाजवाब ग़ज़ल बेहतरीन अशआर बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.
आदरणीय विजय मिश्र जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद
बहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरणीया मीना जी
बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय विजय निकोर सर
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय जीत जी सादर
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया अन्नपूर्णा जी सादर
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