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ग़ज़ल
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कैसा भाईचारा जी
रख दो माल हमारा जी .
दिल का क्या कहना मानें
दिल तो है आवारा जी .
शीशा तोड़ा, क्या तोड़ा ?
तोड़ो तम की कारा जी .
माल अकेले गपक गये
तुम सारे का सारा जी .
जाओ, कूद पड़ो रण में
दुश्मन ने ललकारा जी .
पेट भरेगा किस-किस का
सबका पालनहारा जी .
कोई चिनगारी ढूँढो
गहरा है अंधियारा जी .
मैं होता तो कर देता
कब का वारा-न्यारा जी .
किस पर जान लुटायेंगे
कौन है तुमसे प्यारा जी .
अब अपना क्या परिचय दूँ
मैं बे-घर बनजारा जी
[[[[[[[]]]]]]]
-- 'आकाश'
[मौलिक/अप्रकाशित]
Comment
आदरणीय अजीत शर्मा जी
छोटी बहर पर सहज सरल प्रस्तुति आकर्षित करती है.. और रदीफ़ भी 'जी' प्रभावशाली है... बधाई स्वीकारें
यदि आपने बहर// २ २ २ २ २२ २ // ली है तो कई मिसरे बेबहर हो रहे हैं. एक बार पुनः गौर करें
मतले में इता दोष है व चिंगारी वाले शेर में तकाबुले रदीफ़ का ऐब बन रहा है
बहुत सुन्दर आदरणीय
शीशा तोड़ा, क्या तोड़ा ?
तोड़ो तम की कारा जी . वाह क्या बात है
शीशा तोड़ा, क्या तोड़ा ?
तोड़ो तम की कारा जी .//////वाह बहुत खूब
बहुत सुन्दर ग़ज़ल भाई आकाश जी //हार्दिक बधाई आपको
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