बह्र : मुस्तफ्फैलुन मुस्तफ्फैलुन
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सच वो थोड़ा सा कहता है
बाकी सब अच्छा कहता है
दंगे ऐसे करवाता वो
काशी को मक्का कहता है
दौरे में जलते घर देखे
दफ़्तर में हुक्का कहता है
कर्मों को माया कहता वो
विधियों को पूजा कहता है
जबसे खून चखा है उसने
इंसाँ को मुर्गा कहता है
खेल रहा वो कीचड़ कीचड़
उसको ही चर्चा कहता है
चलता है जो खुद सर के बल
वो सबको उल्टा कहता है
तेरा क्या होगा रे ‘सज्जन’
अंधे को अंधा कहता है
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
वाह! क्या कहिए गज़ल की शान को, बहुत खूबसूरत!!
खेल रहा वो कीचड़ कीचड़
उसको ही चर्चा कहता है,, क्या बात कही है!
खेल रहा वो कीचड़ कीचड़
उसको ही चर्चा कहता है............वाह! क्या बात है
चलता है जो खुद सर के बल
वो सबको उल्टा कहता है.........बहुत खूब, सशक्त सार्थक शेर
बहुत बढ़िया गजल, बहुत बहुत बधाई आदरणीय धर्मेन्द्र जी
जबसे खून चखा है उसने
इंसाँ को मुर्गा कहता है... वाह!
बड़ी शानदार गजल आदरणीय धर्मेन्द्र भाई जी... सादर बधाई स्वीकारें....
आदरणीय धर्मेंद्र जी बहुत ही बढ़िया गजल हुई है सभी शेर बहुत ही उम्दा है बहुत बधाई ।
दौरे में जलते घर देखे
दफ़्तर में हुक्का कहता है
कर्मों को माया कहता वो
विधियों को पूजा कहता है
जबसे खून चखा है उसने
इंसाँ को मुर्गा कहता है
खेल रहा वो कीचड़ कीचड़
उसको ही चर्चा कहता है
चलता है जो खुद सर के बल
वो सबको उल्टा कहता है
वाह ज़नाब ! .. बधाई !!
जबसे खून चखा है उसने
इंसाँ को मुर्गा कहता है
खेल रहा वो कीचड़ कीचड़
उसको ही चर्चा कहता है.... अशार सादगी और साहस भरे हैं.. शानदार ..आपके तरकश को बधाई आदरणीय :-)
जबसे खून चखा है उसने
इंसाँ को मुर्गा कहता है......उम्दा :)
चलता है जो खुद सर के बल
वो सबको उल्टा कहता है |
वाह, बढ़िया ग़ज़ल धर्मेन्द्र जी !
हर एक शेर लाजवाब है आ० धर्मेन्द्र जी
हार्दिक बधाई इस ग़ज़ल पर
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