एक इशारा अधूरा सा
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छू कर
पहन कर
चख कर
देख लेते हैं
कभी खरीदते हैं
कभी यूँ ही लौट आते हैं
सब सही है
अमीरे शहर के लिये !!
दुत्कार है
डांट है
उपेक्षा है
भूख है ,
फटेहाली है
नंगे शहर के लिये !!!
लेकिन ,
जगमगाती,
बार बार जल बुझ कर
बुलाती सी रौशनी
पारदर्शी शो केश
सजी हुई चीजें
कपड़े –लत्ते
मिठाइयाँ
न जाने क्या क्या
आमंत्रण देती
मजबूर करती
देखने के लिये
प्रेरित करती है
दोनो को
बराबरी से !!!!
कहीं वो न हो जाये
जिसका डर है
ठीक है ,
ये ज़ुर्म है ,
सजा भी है ,
पकड़े जायेंगे
भोग भी लेंगे
सब मंज़ूर !!!!!
पर उस शो केस का क्या ?
वो तो टूट ही चुका
बिखर गया
टुकड़ों –टुकड़ों में
खामोश है
उदास है ,
अन्दर ही अन्दर
रोता , बिलखता
परित्यक्त सा ,
पड़ा है कोने में
अन्दर से बाहर तक
चकनाचूर !!!
तब !!!!!
एक प्रश्न खड़ा होता है
क्या शो केस
अपारदर्शी नहीं हो सकते ?
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीया वन्दना जी , रचना की सराहना के लिये आपका आभार !!!!!!
आदरणीय सुशील भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका शुक्रिया !!!!
आदरणीय अभिनव भाई , उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया के लिये आपका बहुत शुक्रिया !!!!!
आदरणीय दिलिप भाई , रचना की सराहना के लिये आपका बहुत आभार !!!
आपकी रचना के भाव मन को छू गए।
//देखने के लिये
प्रेरित करती है
दोनो को
बराबरी से !!!!//........ रचना के इस भाग से खलील गिबरान जी की दार्शनिक रचना याद आ गई।
सुन्दर रचना के लिए बहुत बधाई, आदरणीय गिरिराज जी।
सादर,
विजय निकोर
वाह वाह वाह...........
पैनी निगाह
उम्दा भाव
शानदार रचना
आदरणीय गिरिराज जी ।
बहुत बढ़िया विषय और मर्म को छूती रचना आदरणीय गिरिराज सर
एक अति सुंदर रचना है आदरणीय गिरिराज जी.... बधाई हो....
मार्क्स ने ही नहीं राम राज में भी ऐसी ही परिकल्पना थी आ. गिरिराज जी , पर आज के भौतिक युग में असमानता का साम्राज्य है ... खाई बढती जा रही है और हम संवेदनशील लोगों की पीड़ा भी ,,लिखा था -
एक पर्वत और दस दस खाइयां ,
है सतह पर सैकड़ों सच्चाइयां |
......... साधुवाद सर्वहारा वर्ग की जानिब से आपको !
एक प्रश्न खड़ा होता है
क्या शो केस
अपारदर्शी नहीं हो सकते ?आनंद आगया पढकर ,,,बधाई आपको"
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