गीत (जब से अपने जुदा हो गए)
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जब से अपने जुदा हो गए, ख्वाहिशें सब फ़ना हो गईं,
मौत भी जैसे नाराज़ है, ज़िंदगी बेवफा हो गई।
दर्द के कुछ थपेड़ों ने आकर के फिर,
तोड़ डाला मेरे एक अरमान को,
ज़ख्म जितने मिले, सारे दिल पे लगे,
चोट पहुँची मेरे मान सम्मान को,
गल्तियाँ उनको सब माफ़ थीं, हमने की तो ख़ता हो गई,
मौत भी जैसे नाराज़ है, ज़िंदगी बेवफा हो गई,
जब से अपने जुदा हो गए....
छोड़कर हमको यूँ बीच मँझधार में,
उनके दिल को सुकूँ कैसे आया भला,
हम तो यादों की नैया में रोते रहे,
सोचते थे ये किस्मत ने कैसा छला,
दिन से धूलों का पर्दा हटा, रात भी आइना हो गई,
मौत भी जैसे नाराज़ है, ज़िंदगी बेवफा हो गई,
जब से अपने जुदा हो गए....
रिश्ते नातों से बढ़कर ना कोई बड़ा,
जानकर भी क्यों अनजान बनते हैं वो,
मोह माया के चक्कर में जो भी फँसा,
चाह कर भी न इन्सान बनते हैं वो,
अपने साये से भी तब बड़ी, रुपयों की लालसा हो गई,
मौत भी जैसे नाराज़ है, ज़िंदगी बेवफा हो गई,
जब से अपने जुदा हो गए....
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----- सुशील जोशी
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय सौरभ जी..... सबसे पहले तो देरी से प्रत्युत्तर के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ..... पता नहीं कैसे इतने दिन बाद यह टिप्पणी देख रहा हूँ...... आपने मेरे गीतों की गीतात्मकता के विषय में मुझे समर्थन दिया, उसके लिए ह्रदय तल से आभार........ साहित्यिक गीतों में जिन भावनाओं के संप्रेषण के विषय में आपने बताया है, मैं निश्चित रूप से उससे सहमत हूँ.... यद्दपि पाठक की इच्छाओं का ध्यान रखना बेहद आवश्यक है किंतु इस विषय में कई बार कुछ ऐसा हो जाता है कि कलम अनायास ही चलने लगती है.... उस समय ना तो गीत के शिल्प का ध्यान रहता है और न ही पाठकों का...... केवल एहसास ही साथ होते हैं और कलम अनावरत चलती जाती है.............. इस गीत की रचना भी कुछ इसी प्रकार हुई है...... या सच कहूँ तो यह मेरी पीड़ा है जिसे मैंने भोगा है...... और मैंने सुना है कि दुख बाँटने से कम होते हैं...... इसलिए इस प्रकार की रचना भी पोस्ट कर दी...... और आप गुणीजनों की टिप्पणी से मेरा दुख थोड़ा कम हो गया............. लेकिन आपका कहा तो मेरे लिए आशीर्वाद के समान है...... इस पर पूर्णत: केन्द्रित होने का मेरा प्रयास रहेगा...... आप जैसे विद्वजनों का साथ एवं आशीर्वचन तो मेरा संबल हैं..... आपका अतिश: आभार....
आदरणीय सुशीलजी, आपके गीतों को एक अरसे से पढ़ता रहा हूँ.
यह सही है कि साहित्यिक गीतों के कई प्रारूप देखने में आते हैं लेकिन एक तथ्य जो सभी तरह के गीतों में विद्यमान होना आवश्यक भी है और सफल गीतों में होता भी है वह है गीतात्मकता. जो कि कोमल भावदशा की सक्षम अभिव्यक्ति है. संदेह नहीं आपके गीतों में यह गीतात्मकता दीख जाती है.
इसके साथ ही, एक और विन्दु है जो साहित्यिक गीतों की मूल आवश्यकताओं में से हुआ करता है, या होना ही चाहिये. वह है और अभिनव अभिव्यक्तियाँ. अर्थात् दुःख-पीड़ा-विरही मनोदशा आदि भावनाओं का संप्रेषण गीत का साग्रह पक्ष है. एक समय से कवि इन्हें अपने गीतों का आधार बनाते रहे हैं. लेकिन आज हम नया क्या कह पा रहे हैं ? हमारी कहन में ऐसा नया क्या है कि आज का पाठक पढ़ना चाहेगा. अथवा, उसे पढ़ना चाहिये ! हम उसे क्या दे रहे हैं ! ये प्रश्न भी एक रचनाकार को उतना ही संवेदित करें.
विश्वास है, मेरे कहे को कोई आग्रह या दवाब न समझ कर एक संवाद समझियेगा.
सादर
बहुत बहुत आभार आदरणीय बृजेश जी...
गीत पसंद करने के लिए आपका धन्यवाद आदरणीय आशीष जी...
स्नेहिल टिप्पणी के लिए आपका अतिश: धन्यवाद आदरणीय डॉ. आशुतोष जी...
सुन्दर गीत! आपको हार्दिक बधाई!
बढ़िया गीत है भाई सुशील जी !
आदरणीय शुशील जी भावों से भरे बेहतरीन गीत के लिए हार्दिक बधाई ..
टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आदरणीय त्रिपाठी जी....
आपकी सकारात्मक टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीय कपीश जी....
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