कैकई के मोह को
पुष्ट करता
मंथरा की
कुटिल चाटुकारिता का पोषण
आसक्ति में कमजोर होते दशरथ
फिर विवश हैं
मर्यादा के निर्वासन को
बल के दंभ में आतुर
ताड़का नष्ट करती है
जीवन-तप
सुरसा निगलना चाहती है
श्रम-साधना
एक बार फिर
धन-शक्ति के मद में चूर
रावण के सिर बढ़ते ही जा रहे हैं
आसुरी प्रवृत्तियाँ
प्रजननशील हैं
समय हतप्रभ
धर्म ठगा सा आज है फिर
राम ! तुम कहाँ हो ?
=====================
--बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ जी रचना पर आपको उपस्थिति के लिए आपका हार्दिक आभार!
आपके शब्द मुझे उत्साहित करते हैं रचनाकर्म के लिए और आपका मार्गदर्शन उस कर्म को दिशा देता है! इसके लिए आभार व्यक्त करने को मेरे पास शब्द नहीं हैं!
सादर!
आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार! रचना आपको पसंद आई, यही मेरे प्रयास की सफलता है!
सादर!
जाने वो कैसा समय रहा होगा जिसकी विसंगतियों से उद्धार पाने के लिए अवतारों और पराक्रमियों की परिकल्पनाएँ की गयी थीं.
क्या पता, कौन जाने, वे परिकल्पनाएँ सत्य आधारित भी थीं या मात्र गल्प ही थीं, जिनके शब्द और कथ्य हम आजतक चुभलाते जा रहे हैं ! कौन जाने क्षुब्ध जन-समाज के मन को उसकी अतिरेक परिस्थितियों और अतुकान्त विवशता से डाइवर्सन पर डालने के लिए, रचा गया गल्प !
लेकिन ये गल्प ही सही, वायव्य संसार बना कितनी राहत देता है एक उजबुजाये मन को ! जो यह मनोविज्ञान समझ सके वही कवि है. इसके प्रति समाज को कोई संशय नहीं रहा है कभी.
या, यदि सत्य आधारित पात्र ही थे वो तो फिर ऐसे पात्रों के अवतरण की अवधारणाएँ किन परिस्थितियों में संभव हैं ?
भाई बृजेशजी, आपकी प्रस्तुत रचना समानान्तर दुर्दम्य परिस्थितियों, असहज सम्बन्धों और घोर विसंगतियों के व्याप जाने की साक्षी सदृश खड़ी है. वाह !
आपकी रचना लगातार सक्षम होते आपके शाब्दिक आग्रह और तदनुरूप रचनाकर्म को आवश्यक गहनता देती है. आप बस सतत क्रियाशील बने रहें. निर्बीज प्रतिक्रिया या भोथरे प्रतिकार के तौर पर नहीं. बल्कि रचनाधर्मिता की प्रसव-पीड़ा को मान देने के लिए.
इस सार्थक और सफल कविता के लिए हृदय से बधाई.
शुभ-शुभ
आदरणीय बृजेश जी
अतीक पौराणिक बिम्बों का प्रयोग करते हुए सामयिक हालातों को बहुत सुन्दरता से अभिव्यक्ति मिली है...
आसुरी प्रवृत्तियाँ
प्रजननशील हैं
समय हतप्रभ
धर्म ठगा सा आज है फिर........................मर्मस्पर्शी पंक्ति
राम ! तुम कहाँ हो ?
हार्दिक शुभकामनाएं
आदरणीया गीतिका जी आपका हार्दिक आभार! आपका अनुमोदन पाकर मेरा प्रयास सार्थक हुआ!
आसुरी प्रवृत्तियाँ
प्रजननशील हैं
समय हतप्रभ
धर्म ठगा सा आज है फिर
राम ! तुम कहाँ हो ?
अंतर से पुकार मुखरित हुयी है | बधाई !!
आदरणीय बैद्यनाथ जी आपका हार्दिक आभार!
आसुरी प्रवृत्तियाँ
प्रजननशील हैं....... सारगर्भित पंक्तियाँ ...अत्यंत भाव पूर्ण ..! बढ़िया एवं उत्तम रचना ! बधाई बृजेश साहब :)
आदरणीय सुशील जी आपका हार्दिक आभार!
आज के वास्तविक हालात को बयाँ करती इस सुंदर प्रस्तुति के लिए आपको हार्दिक बधाई हो आदरणीय बृजेश जी..... सचमुच आज एक राम की आवश्यकता आन पड़ी है जो रावण के इन बढ़ते हुए सिरों को जड़ से उखाड़ने में सक्षम हो.......
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online