1222, 1222, 122.
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ज़रूरत से ज़ियादा क्यूँ करें हम?
लहू दिल से निचोड़ा क्यूँ करें हम?
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फ़ना हो जाएगा सबकुछ जहां में,
ये झूठा फिर दिखावा क्यूँ करें हम?
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उगेंगे एक दिन कांटें ही कांटें,
ज़हन में याद बोया क्यूँ करें हम?
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नहीं परवाह है उनको हमारी,
बिना कारण ही रोया क्यूँ करें हम?
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हमारे काम खुद ही बोलतें है,
ज़ुबानी कोई दावा क्यूँ करें हम?
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जुदा है रास्ते तुमसे हमारे,
बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम?
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तुम्हारे सामने हस्ती नहीं कुछ,
मगर इज्ज़त का सौदा क्यूँ करें हम??
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अभी तो ज़ख्म अपने सब हरे है,
बता इनको कुरेदा क्यूँ करें हम??
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मिलेगी कौनसी दौलत यहाँ पर,
किसी की क़ब्र खोदा क्यूँ करें हम?
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हकीक़त है पता ज़न्नत की हमको,
वहाँ का फिर इरादा क्यूँ करें हम?
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चलो अब ‘नूर’ चलते है यहाँ से,
किसी का वक़्त ज़ाया क्यूँ करें हम?
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निलेश 'नूर'
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय राजेश कुमारी जी की सलाह पर शेर में तरमीम कर दी है... आप सभी से सुझाव अपेक्षित है .
आप की आज्ञा सर माथें पर आदरणीय राजेश कुमारी जी .. आप ऐसे ही मेरी कॉपी जांचती रहिये तो गुणात्मक सुधार होगा लेखनी में.
वाह वाह वाह नीलेश जी एक या दो अशआर की बात नहीं करुँगी सभी लाजबाब हैं एक को कोट करुँगी तो दूसरे के साथ ना इंसाफी होगी ,बस इस ग़ज़ल के लिए तो ढेरों दाद कबूलिये ,हाँ इस ग़ज़ल की खूबसूरती को देखते हुए रुका नहीं जा रहा बिना मांगे एक निजी राय देना चाहूंगी ---अभी तो ज़ख्म अपने सब हरे है,
अभी इनको कुरेदा क्यूँ करें हम??
सानी में अगर -----बता इनको कुरेदा क्यूँ करें हम करेंगे तो कैसा रहेगा ? दोनो मिसरों में अभी का दोहराव शेर की ख़ूबसूरती घटा रहा है (मेरे ख्याल से )
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चलो अब ‘नूर’ चलते है यहाँ से,
किसी का वक़्त ज़ाया क्यूँ करें हम........ क्या बात है नीलेश भाई..... बधाई इस सुंदर गज़ल के लिए और आपका पहला प्रयास इतना सफल हुआ उसके लिए भी....
सभी मित्रों का दिल से आभारी हूँ जो आप ने इतनी ध्यान से पढ़ा और सराहा. शुक्रिया
आदरणीय नीलेश जी ..आपकी यह पहली ग़ज़ल है ..लेकिन इसने झंडे गाड़ दिए ..हर अशार बेहतरीन ,,काबिले तारीफ़ इस ग़ज़ल के लिए आपको हार्दिक बधाई
तुम्हारे सामने हस्ती नहीं कुछ,
मगर इज्ज़त का सौदा क्यूँ करें हम?? .............खूबसूरत भाईजी बधाई
नीलेश भाई , एक अच्छी गज़ल की बधाई ।
वाह बढ़िया ग़ज़ल भाई नीलेश जी !!
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