दिल के बिना जैसे कोई नादान जिन्दा रह गया
वैसे हो बेघर इक हसीं अरमान जिन्दा रह गया
है आदमी ही आदमी की जान का दुश्मन हुआ
यारों खुदा का है करम इंसान जिन्दा रह गया
टूटा हमारा हौसला उम्मीद फिर भी थी जवां
रख आरजू जीने की ये बेजान जिन्दा रह गया
मेरे खुदा मुझ पर तेरा रहमो करम हरदम रहा
तूफ़ान में अदना सा ये इंसान जिन्दा रह गया
लगते रहे हर रोज ही इल्जाम तो हम पर बड़े
माँ की दुआओं से मेरा सम्मान जिन्दा रह गया
होता नहीं था हम पे तो दीवानगी का कुछ असर
दिल में हमारे कैसे ये तूफ़ान जिन्दा रह गया
नाजुक हसीं गुल की हँसी उतरी थी दिल में जिस घड़ी
दिल में उसी पल से हसीं मेंहमान जिन्दा रह गया
डॉ आशुतोष मिश्र
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारिये आदरणीय
सादर
मेरे खुदा मुझ पर तेरा रहमो करम हरदम रहा
तूफ़ान में अदना सा ये इंसान जिन्दा रह गया....
उम्दा प्रस्तुति आदरणीय .. बधाई आपको
बढ़िया ग़ज़ल हुई है! आपको हार्दिक बधाई!
बहुत ख़ूब .. बधाई
बहुत बढ़िया मजा आ गया सर जी
शानदार गज़ल प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई डॉ. आशुतोष जी...
अरुण अनंत भाई आप किस मिसरे की ओर इंगित कर रहे हैं, ???
मुझे तो सभी मिसरैन बहर के हवाले से दुरुस्त दिखाई पड़ते हैं ...........
मेरे खुदा मुझ पर तेरा रहमो करम हरदम रहा
तूफ़ान में अदना सा ये इंसान जिन्दा रह गया.....वाह! बहुत सुंदर
लगते रहे हर रोज ही इल्जाम तो हम पर बड़े
माँ की दुआओं से मेरा सम्मान जिन्दा रह गया......यह बहुत पसंदीदा हुआ
बहुत लाजवाब गजल, दिली दाद कुबूल कीजिये आदरणीय डा. आशुतोष जी
आदरणीय अरुण जी ..बहुत कोशिस की थी फिर भी चूक हो गयी ..मैं सम्बंधित भूल ठीक करूँगा ..बस ऐसे ही आप सब का सहयोग मिलता रहे ..सादर धन्यवाद केसाथ
आदरनीय अखिलेश जी ..हौसला अफजाई के लिए हार्दिक धन्यवाद
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