सार्थक दशहरा
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धर्म की विजय हुई त्रेता में, राम ने मारा रावण को।
उसकी याद में हमने भी, हर साल जलाया रावण को॥
कलियुग में मायावी रावण, रूप बदलकर आता है।
वो भ्रष्टाचारी, अत्याचारी, अनाचारी कहलाता है॥
अधर्मी रावण का पुतला, हर बरस जलाया जाता है।
कई रूप में अंदर बैठा रावण, हँसता है, मुस्काता है॥
अपने अंदर के रावण को , आओ, पहले जलायें हम।
फिर कंधे में बिठा बच्चे को, रावण दहन दिखायें हम॥
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-अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव, धमतरी ( छत्तीसगढ़ )
मौलिक- अप्रकाशित
Comment
हार्दिक धन्यवाद आ. विजय मिश्रजी, आ. महिमाजी , आ. सौरभ भाई , आ. प्राचीजी आप सभी ने छोटी सी सामयिक रचना को सराहा पसंद किया ।
बहुत सुन्दर कविता हुई है. प्रवाह भी उत्तम है. बधाई स्वीकारें आदरणीय.
सादर
आदरणीय अखिलेश जी मेरे संशय को दूर करने के लिए आपका हार्दिक आभार!
आप अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें! ये प्राथमिकता है! बाकी चीज़ें होती रहेंगी!
सादर!
आदरणीय बृजेश नीरज जी अभी मैं किसी खास विधा और मात्राओं से मुक्त होकर अपनी कविता मुक्त छंद की तरह लिख रहा हूँ , पद्य लयात्मक रहे इस बात का प्रयास करता हूँ । ओ बी ओ की हिंदी कक्षा का मैं छात्र हूँ आप सभी श्रेष्ठ रचनाकारों के सानिंध्य में सफलता की उम्मीद् है ।.पिछले पाँच दिनों से ज्वर से जूझ रहा हूँ और धमतरी में नेट की समस्या भी बनी रहती है इसलिए आपकी टिप्पणी कुछ देर पहले ही पढ़ पाया । ..... सादर ।
अपने अंदर के रावण को , आओ, पहले जलायें हम।
फिर कंधे में बिठा बच्चे को, रावण दहन दिखायें हम॥... सुंदर भाव है आदरणीय .. बधाई आपको
आदरणीय रचना पर कुछ कहने से पहले आपसे ये जानने की इच्छा है कि ये रचना है किस विधा में!
सादर!
हार्दिक धन्यवाद, श्याम वर्माजी, अरुण शर्माजी , जितेंद्र जी, आशुतोष मिश्रजी, अभिनव अरुण जी, सुशील जोशीजी , छोटे भाई कपीश एवं गिरिराज आप सभी ने छोटी सी सामयिक रचना को सराहा पसंद किया ।
भावों का सुंदर समावेश..... एक संदेश देती हुई इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय अखिलेश जी....
अपने अंदर के रावण को , आओ, पहले जलायें हम।
फिर कंधे में बिठा बच्चे को, रावण दहन दिखायें हम॥
..........सुन्दर सामयिक कामना श्री अखिलेश जी हार्दिक बधाई और साधुवाद इस संदेशपरक रचना के लिए
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