गीत (पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ)
पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो,
जैसे पूछ रही हो मुझसे, क्या मुझ पर भी कुछ लिखते हो।
तुम नयनों से अपने जैसे
कोई सुधा सी बरसाती हो,
कैसे कह दूँ संग में अपने
नेह निमंत्रण भी लाती हो,
फिर भी कहती हो तुम मुझसे, क्यों मुझ में ही गुम दिखते हो,
पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो।
वाणी तुम्हारी वेद मंत्र सी
पावन दिल को छूने वाली,
और रसीले अधर तुम्हारे,
केश हैं जैसे बदरा काली,
तुम मीरा सी श्याम की धुन में, जैसे हो गुमसुम दिखते हो,
पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो।
तुम हो शरद सी ऋतु मस्तानी
हिम का घूँघट ओढ़ चली हो,
तुम वसंत में तन पर अपने
सुमन लताएँ मोड़ चली हो,
तुम वर्षा की रिमझिम धारा, और कभी फागुन दिखते हो,
पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो।
----------------------------------------------------- सुशील जोशी
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
गीत पर आपका अनुमोदन मेरी लेखनी का उत्साहवर्धन कर रहा है आदरणीय जितेन्द्र भाई जी..... सादर आभार....
इस गीत को पसंद कर उस पर अपनी प्रतिक्रिया देने हेतु आपका हार्दिक आभार आदरणीय डॉ. आशुतोष जी...
तुम मीरा सी श्याम की धुन में, जैसे हो गुमसुम दिखते हो /// तुम मीरा सी श्याम की धुन में, मंत्र-मुग्ध, गुमसुम दिखते हो।
बधाई सुशील भाई सौंदर्य का सुंदर वर्णन करने के लिए । ........
सादर...............अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव
bahut sundar geet sushil ji hardik badhai aapko
बहोत सुन्दर गीत .. बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय
आदरणीय सुशील भाई जी । इतनी बढ़िया श्रृंगार रस की रचना है आपकी ,कि मेरे पास प्रशंशा करने को शब्द कम पड़ रहे हैं । हर पद हर पंक्ति एक से बढ़कर एक । शुरू की ही दो पंक्तियाँ पढते ही " वाह " निकल पड़ता है मुह से । क्या पंक्ति है सर जी " जैसे पूछ रही हो मुझसे , क्या मुझ पर भी कुछ लिखते हो " । आपको अनेकों - अनेकों बधाई ।
अहा! अतिसुन्दर गीत रचा!! बधाई आपको !!
तुम हो शरद सी ऋतु मस्तानी
हिम का घूँघट ओढ़ चली हो,
तुम वसंत में तन पर अपने
सुमन लताएँ मोड़ चली हो,
तुम वर्षा की रिमझिम धारा, और कभी फागुन दिखते हो,
पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो।
बेहद सुंदर भाव, किसी खूबसूरती को पृकृति की सौन्दर्यता से जोडकर, अनुमान लगाया जा सकता है, की वह हृदय जिसके पृष्ठ खुले हों
कितना निर्मल व् सुंदर है,बहुत बहुत बधाई आदरणीय शुशील जी
आदरणीय शुशील जी ..मन को छु लेने वाली अत्यंत शसक्त रचना ..
तुम नयनों से अपने जैसे
कोई सुधा सी बरसाती हो,
कैसे कह दूँ संग में अपने
नेह निमंत्रण भी लाती हो,
फिर भी कहती हो तुम मुझसे, क्यों मुझ में ही गुम दिखते हो,
पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो।...............मेरी तरफ से इस बेहतरीन रचना के इन पंक्तियों पर बिशेष रूप से बधाई स्वीकार करें ..सादर
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