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चलो चलें अब यहाँ से यारो, रहा न अपना यहाँ ठिकाना,
नहीं रहा अब, जो हम से रूठे, किसे भला है हमें मनाना.
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था इश्क़ हमको, था इश्क़ तुमको, मगर बगावत न कर सकें हम,
न तुम ने छोड़ा, न बेवफ़ा हम, न तुम ने समझा, न हम ने जाना.
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शराब छोड़ी, नशा बुरा था, नज़र से पी ली, नज़र मिलाकर,
नज़र नज़र में नशा चढ़ा यूँ, वो भूल बैठा मुझे पिलाना.
***
न फेरियें मुंह, अभी से साहिब, अभी सफ़र ये शुरू हुआ है,
कत’आ करो तुम अभी न रिश्ता, इसे है सदियों तलक निभाना.
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खिंचा मै आऊँ, तुम्हारी जानिब, लगे बुलावा, लबों की लरज़िश,
तुम्हारी ज़ुल्फ़ें लगे घटा सी, महक तुम्हारी करे दीवाना.
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भड़क रहें है दिलों में शोले, थिरक रही है लवें दीयों की,
लगाए सावन, ये आग लेकिन, नहीं वो जानें इसे बुझाना.
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मुझे अभी तक हैं याद आतें, बिखर गए जो हसीन सपने,
सिसक रहे है जो दिल में अब तक मगर मुनासिब है भूल जाना.
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सुनों पिया तुम, जवाब दो तुम, कहाँ छुपे हो मेरे ख़ुदा तुम,
बहुत बुरा है ये दिल लगाना, यूँ दर्द देकर दवा छुपाना.
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तुम्हे लगी जो फ़क़त कहानी, जिया उसे ‘नूर’ जिंदगी भर,
वही तो थी बस मेरी हक़ीक़त, जिसे समझते रहे फ़साना.
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मौलिक एवं अप्रकाशित
निलेश 'नूर'
Comment
अच्छी ग़ज़ल! आपको हार्दिक बधाई!
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय गणेश जी. आप की दाद से हौसला बुलंद हुआ है. आगे भी बेहतर रचने का प्रयास रहेगा. जो शेर आप को सब से अधिक पसंद आया है, वो पहले ज़रा अलग था लेकिन उसमें आदरणीय योगराज प्रभाकर जी की सलाह से बदलाव किया है.
आभार
आदरणीय निलेश जी, दिल खुश कर दिया बंधू, ऐसी ग़ज़लें रोज नहीं हुआ करतीं, सभी शेर एक पर एक लगें, किन्तु निम्न एक शेर मुझे सबसे बढ़िया लगा,
//सुनों पिया तुम, जवाब दो तुम, कहाँ छुपे हो मेरे ख़ुदा तुम,
बहुत बुरा है ये दिल लगाना, यूँ दर्द देकर दवा छुपाना. //
बहुत बहुत बधाई इस खुबसूरत ग़ज़ल पर ।
ग़ज़ल आप तक पहुंची तो लिखना सार्थक हुआ.. धन्यवाद
सर जी बहुत बढ़िया गजल है आपकी
दिल को छू गई आप की पक्तिया
बहुत बहुत धन्यवाद, इस हौसला अफज़ाई के लिए .. स्नेह बनाएं रखें... मार्गदर्शन भी करतें रहें.
तुम्हे लगी जो फ़क़त कहानी, जिया उसे ‘नूर’ जिंदगी भर,
वही तो थी बस मेरी हक़ीक़त, जिसे समझते रहे फ़साना..... वाह बहुत खूब आदरणीय नीलेश जी..... सुंदर गज़ल कही है....
शुक्रिया आदरणीय.
लाजवाब....लाजवाब....आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी
मुश्किल बह्र को क्या खूबसूरती से निभाया है। दिली दाद कबूलें।
वही तो थी बस मेरी हक़ीक़त, जिसे समझते रहे फ़साना. /// अच्छी गज़ल की बधाई नीलेश भाई ।
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