१२२२, १२२२, १२२२, १२२२,
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हुआ है तज्रिबा मत पूछ हम को क्या मुहब्बत में,........पहले तज़ुर्बा लिखा था जो गलत था .. अत: मिसरे में तरमीम की है.
लगा दीदा ए तर का आब भी मीठा मुहब्बत में.
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जो चलते देख पाते हम तो शायद बच भी सकते थे,
नज़र का तीर दिल पे जा लगा सीधा मुहब्बत में.
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ख़ुमारी छाई रहती है, ख़लिश सी दिल में होती है,
अजब है दर्द जो ख़ुद ही लगे चारा मुहब्बत में.
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रवायत आज भी भारी ही पड़ती है मुहब्बत पर,
ज़माना जीत जाता है यही सीखा मुहब्बत में.
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कहा उसने न मेरी अब गली में तुम कभी आना,
मुडा ऐसे, न उसका गाँव फिर देखा मुहब्बत में.
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ख़ुदा तुम को समझता हूँ, मुहब्बत दीन है मेरा,
भला बन्दे से करता है ख़ुदा पर्दा मुहब्बत में??
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कहेगा जिस्म से आगे, बहुत आगे की बातें ‘नूर’
अगर राधा न बन पाओ बनो मीरा मुहब्बत में.
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निलेश 'नूर'
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय अजय जी, नीरज जी,
आप की स्नेह वर्षा से मन भीग गया है. मेरा प्रयास रहेगा की इस मंच के माध्यम से मै और भी बेहतर रचनाएं रच सकूँ और आप की नज्र कर सकूँ ..
आभार
कहा उसने न मेरी अब गली में तुम कभी आना,
मुडा ऐसे, न उसका गाँव फिर देखा मुहब्बत में...
बहुत खूब .. दाद क़ुबूल करें
रवायत आज भी भारी ही पड़ती है मुहब्बत पर,
ज़माना जीत जाता है यही सीखा मुहब्बत में. WAH WAH
कहेगा जिस्म से आगे, बहुत आगे की बातें ‘नूर’
अगर राधा न बन पाओ बनो मीरा मुहब्बत में. GLORIOUS
....sach kahoo .....ab tak ki uplabdh rachnayon me ....mujhe vaktigat taur par ye gazal behad bhayii .....aise ki jyo koi nadi bah rahi ho....ki jaise lafzo ko ik dusre se badi mohabaat aur laykari ke saath piroya gaya hai ....dili mubaraqbaad qubool farmaye ........janab nilesh ji.........jai ho .....
आदरणीय वीनस जी के मशविरे से थोड़ी तरमीम की है, मतले के मिरसा -ए -ऊला में ... उसे अब यूँ पढ़ें ..
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हुआ है तज्रिबा मत पूछ हम को क्या मुहब्बत में...
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धन्यवाद ..
बहुत बहुत धन्यवाद सभी मित्रों को . आदरणीय वीनस जी के सुझाव पर ध्यान देतें हुए मै प्रयत्न करूँगा की कोई अन्य शब्द खोज सकूँ.
वीनस जी के कमेंट्स रुपी स्पर्श से ये ग़ज़ल पुन: अहिल्या हो गई है.
आभार आदरणीय
निलेशजी बधाई इस सुंदर गज़ल के लिए ।
इन चार अशआर के लिए दिल से दाद क़ुबूल फरमाएं ,,, बेहद शानदार
तज़ुर्बा पूछ मत हम को हुआ क्या क्या मुहब्बत में,
लगा दीदा ए तर का आब भी मीठा मुहब्बत में
जो चलते देख पाते हम तो शायद बच भी सकते थे,
नज़र का तीर दिल पे जा लगा सीधा मुहब्बत में.
ख़ुदा तुम को समझता हूँ, मुहब्बत दीन है मेरा,
भला बन्दे से करता है ख़ुदा पर्दा मुहब्बत में??
कहेगा जिस्म से आगे, बहुत आगे की बातें ‘नूर’
अगर राधा न बन पाओ बनो मीरा मुहब्बत में.
तजुर्बा १२२ = शुद्ध - तज्रिबा २१२
ख़ुमारी छाई रहती है, ख़लिश सी दिल में होती है,
अजब है दर्द जो ख़ुद ही लगे चारा मुहब्बत में........... वाह वाह.... बहुत उम्दा शेर है....
कहेगा जिस्म से आगे, बहुत आगे की बातें ‘नूर’
अगर राधा न बन पाओ बनो मीरा मुहब्बत में............. सत्य कहा आदरणीय नीलेश जी..... बधाई इस खूबसूरत गज़ल के लिए...
जो चलते देख पाते हम तो शायद बच भी सकते थे,
नज़र का तीर दिल पे जा लगा सीधा मुहब्बत में.
कहेगा जिस्म से आगे, बहुत आगे की बातें ‘नूर’
अगर राधा न बन पाओ बनो मीरा मुहब्बत में.......आदरणीय ,इन दो अशआरों के लिए दिली मुबारकबाद ! कमाल हो गया जी ..वाह :)
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