!!! नित धर्म सुग्रन्थ रचे तप से !!!
दुर्मिल सवैया - (आठ सगण-112)
तन श्वेत सुवस्त्र सजे संवरें, शिख केश सुगंध सुतैल लसे।
कटि भाल सुचन्दन लेप रहे, रज केसर मस्तक भान हसे।।
हर कर्म कुकर्म करे निश में, दिन में अबला पर ज्ञान कसे।
नित धर्म सुग्रन्थ रचे तप से, मन से अति नीच सुयोग डसे।।
के0पी0सत्यम-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ0 नारायण भाई जी, सादर प्रणाम! जी आपने बिलकुल सही कहा है। वास्तव में अभी इसे और मांजना है। आपको धन्यवाद सहित आभार। सादर
Antim pankti ka purv se tartamya banane mein kuch adhik prayas apechit tha jo ap kar sakte the. Chand rachna mein jaldi compromise na karein . is akavita ke yug mein varnik chand ki racna ka prayas shalaghneeya ha .
आ0 विजय सर जी, सादर प्रणाम! आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका तहेदिल से बहुत-बहुत आभार। सादर,
सुन्दर छंद के लिए बधाई,आदरणीय केवल जी।
आ0 प्रदीप भार्इ जी, सर जी का प्रश्न था.....डसे...डंसे व हसे....हंसे.....शायद अब आपके समझ में आया हो। आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार। सादर,
waah ... bahut sundar chhand ... badhai ... Saurabh Pandey ji ne prashn kiya hai wahi mera bhi hai
आ0 सुशील भार्इ जी, छन्द पर विशेष स्नेह और उत्साहवर्धन करने हेतु आपका हार्दिक आभार। सादर,
आ0 गीतिका जी, छन्द पर विशेष स्नेह और उत्साहवर्धन करने हेतु आपका हार्दिक आभार। सादर,
वाह वाह.... बहुत ही सुंदर प्रहार किया है आ0 केवल भाई जी...... बधाई हो इस सवैया हेतु......
आ0 जितेन्द्र भार्इ जी, आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका तहेदिल से आभार। सादर,
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