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ग़ज़ल-निलेश 'नूर'- कोई दर्द आँखों में दिखता नहीं है...

122, 122, 122, 122


कोई दर्द आँखों में दिखता नहीं है,
है इंसान कैसा, जो रोया नहीं है??
***

मेरी बात मानों, न यूँ ज़िद करो अब,
दुखाना किसी दिल को अच्छा नहीं है.

***

सभी है किसी और की खाल ओढ़े,
तेरे शह्र में, कोई सच्चा नहीं है.

***

मुझे देख रंगत बदलता है अपनी,
वगरना वो बीमार लगता नहीं है.

***

लगाया करो आँख में आप काजल,
ये है अर्ज़ मेरी, ये फ़तवा नहीं है.   

***

वो करता है तारीफ़ सबकी हमेशा,
हमारा ही वो नाम लेता नहीं है.  

***

लगा अब न मजमा, छुपाकर इसे रख,
मुहब्बत है प्यारे, तमाशा नहीं है.

***

कभी तो निकलिए किसी शाम घर से,
बहुत रोज़ से चाँद निकला नहीं है. 

***

उलझ सा गया है वो दुनियाँ जहाँ में,
रहा ‘नूर’ पहले सरीखा नहीं है.  

*********************************************
निलेश 'नूर' 
मौलिक एवं अप्रकाशित 

Views: 736

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 25, 2013 at 8:00am

धन्यवाद गीतिका जी, सुशिल जी  

Comment by Sushil.Joshi on October 24, 2013 at 8:48pm

बहुत सुंदर प्रस्तुति है आ0 नीलेश जी..... बधाई हो....

Comment by वेदिका on October 24, 2013 at 9:02am

खूबसूरत गज़ल पर बधाई आ0 नीलेश जी!

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 24, 2013 at 8:56am

आदरणीय शकील जी, अरुन जी, गिरिराज जी, आशुतोष जी, विजय जी, अन्नपूर्णा जी ... धन्यवाद..
आदरणीय बृजेश जी, मै अपनी गलती स्वीकार करता हूँ और इस के लिए किसी व्यस्तता के बहाने की चादर नहीं ओढूंगा. आप की बात को अमल में लाने का प्रयत्न करूँगा.
आदरणीय सौरभ जी .. आम बोलचाल में दुनियाँ जहान के लिए प्रयुक्त किया है, लेकिन आप ने इंगित किया है तो कुछ और सोचना पड़ेगा....
आदरणीय वीनस जी .. आप से सहमत हूँ, आप की किसी पोस्ट पर एक टिप्पणी पढ़ी जिसमें आप ने सलाह दी है की रचना पूर्ण होने के 7 दिन बाद तक उसे परखें फिर पोस्ट करें ... इसका पालन मै भी करूँगा.... लिखने की रौ में ऐसे बह जाता हूँ की खुद की कमियां नज़र नहीं आती है ... आगे से थोडा और समय दूंगा इस रचनाकर्म को.
आभार  
            

Comment by वीनस केसरी on October 24, 2013 at 1:59am

ग़ज़ल के लिए बधाई

कुछ शेर प्रभावित करते हैं
कुछ में संशोधन की गुंजाईश दिखती है


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 23, 2013 at 10:31pm

आपको प्रयासरत देखनाभला भी लगता है, आदरणीय. 

कुछ शेर तो अपने नये अंदाज़ के कारण प्रभावित करते हैं. बधाई स्वीकारें, आदरणीय.

मक्ते में दुनिया-जहाँ का प्रयोग क्यों हुआ है ? 

Comment by बृजेश नीरज on October 23, 2013 at 10:27pm

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने! बहुत बहुत बधाई!

एक निवेदन है कि दूसरे साथियों की रचनाओं पर भी टिप्पणी किया करें जिससे कि हम सब आपके अनुभव का लाभ उठा सकें!

सादर!

Comment by annapurna bajpai on October 23, 2013 at 6:40pm

अदरणीय नीलेश जी बहुत जोरदार गजल कही , बहुत बधाई आपको । 

Comment by विजय मिश्र on October 23, 2013 at 4:18pm
निकेशजी ! सच पूछिए तो गजल जैसे -जैसे आगे बढ़ी है , इसकी मिठास में इजाफ़ा होता चला गया है . प्यारी सी गज़ल .शुक्रिया .
Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 23, 2013 at 4:13pm

हर शेर उम्दा ..कभी तो निकलिए किसी शाम घर से, 
बहुत रोज़ से चाँद निकला नहीं है.  ये शेर तो मुझे बेहद पसंद आया ..सादर बधाई के साथ 

कृपया ध्यान दे...

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