122, 122, 122, 122
कोई दर्द आँखों में दिखता नहीं है,
है इंसान कैसा, जो रोया नहीं है??
***
मेरी बात मानों, न यूँ ज़िद करो अब,
दुखाना किसी दिल को अच्छा नहीं है.
***
सभी है किसी और की खाल ओढ़े,
तेरे शह्र में, कोई सच्चा नहीं है.
***
मुझे देख रंगत बदलता है अपनी,
वगरना वो बीमार लगता नहीं है.
***
लगाया करो आँख में आप काजल,
ये है अर्ज़ मेरी, ये फ़तवा नहीं है.
***
वो करता है तारीफ़ सबकी हमेशा,
हमारा ही वो नाम लेता नहीं है.
***
लगा अब न मजमा, छुपाकर इसे रख,
मुहब्बत है प्यारे, तमाशा नहीं है.
***
कभी तो निकलिए किसी शाम घर से,
बहुत रोज़ से चाँद निकला नहीं है.
***
उलझ सा गया है वो दुनियाँ जहाँ में,
रहा ‘नूर’ पहले सरीखा नहीं है.
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निलेश 'नूर'
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
धन्यवाद गीतिका जी, सुशिल जी
बहुत सुंदर प्रस्तुति है आ0 नीलेश जी..... बधाई हो....
खूबसूरत गज़ल पर बधाई आ0 नीलेश जी!
आदरणीय शकील जी, अरुन जी, गिरिराज जी, आशुतोष जी, विजय जी, अन्नपूर्णा जी ... धन्यवाद..
आदरणीय बृजेश जी, मै अपनी गलती स्वीकार करता हूँ और इस के लिए किसी व्यस्तता के बहाने की चादर नहीं ओढूंगा. आप की बात को अमल में लाने का प्रयत्न करूँगा.
आदरणीय सौरभ जी .. आम बोलचाल में दुनियाँ जहान के लिए प्रयुक्त किया है, लेकिन आप ने इंगित किया है तो कुछ और सोचना पड़ेगा....
आदरणीय वीनस जी .. आप से सहमत हूँ, आप की किसी पोस्ट पर एक टिप्पणी पढ़ी जिसमें आप ने सलाह दी है की रचना पूर्ण होने के 7 दिन बाद तक उसे परखें फिर पोस्ट करें ... इसका पालन मै भी करूँगा.... लिखने की रौ में ऐसे बह जाता हूँ की खुद की कमियां नज़र नहीं आती है ... आगे से थोडा और समय दूंगा इस रचनाकर्म को.
आभार
ग़ज़ल के लिए बधाई
कुछ शेर प्रभावित करते हैं
कुछ में संशोधन की गुंजाईश दिखती है
आपको प्रयासरत देखनाभला भी लगता है, आदरणीय.
कुछ शेर तो अपने नये अंदाज़ के कारण प्रभावित करते हैं. बधाई स्वीकारें, आदरणीय.
मक्ते में दुनिया-जहाँ का प्रयोग क्यों हुआ है ?
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने! बहुत बहुत बधाई!
एक निवेदन है कि दूसरे साथियों की रचनाओं पर भी टिप्पणी किया करें जिससे कि हम सब आपके अनुभव का लाभ उठा सकें!
सादर!
अदरणीय नीलेश जी बहुत जोरदार गजल कही , बहुत बधाई आपको ।
हर शेर उम्दा ..कभी तो निकलिए किसी शाम घर से,
बहुत रोज़ से चाँद निकला नहीं है. ये शेर तो मुझे बेहद पसंद आया ..सादर बधाई के साथ
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