न बिजलियाँ जगा सकीं,
न बदलियाँ रुला सकीं।
अड़ी रहीं उदासियाँ,
न लोरियाँ सुला सकीं।
न यवनिका ज़रा हिली,
न ज़ुल्फ की घटा खिली।
उठे न पैर लाज के,
न रूप की छटा मिली।
जतन किए हज़ार पर,
न चाँद भूमि पे रुका।
अटल रहे सभी शिखर,
न आस्मान ही झुका।
चँवर कभी डुला सके,
न ढाल ही उठा सके।
चढ़ा के देखते रहे,
न तीर ही चला सके।
वहीं कपाट बंद थे,
जहाँ सदा यकीन था।
जिसे कहा था हमसफ़र,
वही तमाशबीन था।
कली-कली बहार की,
पुकार के चली गई।
वसंत का दुकूल भी,
उतार के चली गई।
न रंग था न रूप ही,
न नक़्श,न निशानियाँ।
सँभल सके थे जिस घड़ी,
बची थीं बस कहानियाँ।
बिना पिए न जी सके,
न ज़ख़्म आप सी सके।
समुद्र सी तृषा मगर,
न चार घूँट पी सके।
पड़ाव अनगिनत रहे,
कहीं न कोई अंत था।
तलाशते रहे जिसे,
वही मगर दुरंत था।
क़दम-क़दम सदा मिलीं,
अबूझ सी पहेलियाँ।
वही शिकन निगाह में,
वही खुली हथेलियाँ।
अनाम से मुकाम थे,
जहाँ-जहाँ नज़र गई।
किधर चली थी ज़िंदगी
कहाँ-कहाँ गुज़र गई॥
मौलिक व अप्रकाशित॥
Comment
सुंदर धाराप्रवाह...... एक तर्ज़ पर गायी जा सकने वाली प्रस्तुति..... बहुत खूब आ0 रवि प्रकाश जी.... बधाई...
बेजोड़ प्रवाह...कल कल करती निर्झरणी की तरह ...! पढ़कर मजा आ गया जी ...बहुत सुन्दर :)
आदरणीय रवि जी ..इस सुंदर गीत के लिए हार्दिक बधाई वहीं कपाट बंद थे,
जहाँ सदा यकीन था।
जिसे कहा था हमसफ़र,
वही तमाशबीन था।..जीवन में ऐसा मंजर हमेशा ही आ जाता है ..बेहतरीन ..सादर
निग़ाह में शिकन का होना बहुत अच्छा प्रयोग है, भाईजी. आपके बिम्बों और प्रयुक्त अवधारणाओं पर मैं आपको साधुवाद देता हूँ.
मैं तो आपकी प्रस्तुति पर अपनी बात कह रहा हूँ. ऐसी कविताई साठ और उसके उत्तर के दशक में खूब चली थी. अब आप समझ रहे होंगे कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ.
शुभ-शुभ
आदरणीय रवि भाई बहुत ही सुन्दर कविता बनी है प्रवाह भी बेहद सुन्दर है इस हेतु ढेरों बधाई स्वीकारें.
क़दम-क़दम सदा मिलीं,
अबूझ सी पहेलियाँ।
वही शिकन निगाह में, निगाह में शिकन मुझे अटपटा लगा भाई
वही खुली हथेलियाँ।
अच्छी कविता हुई है. प्रयासरत रहने के क्रम में हुई यह रचना आने वाले दिनों में अच्छी कविताओ के लिए जगह बनाती दिख रही है.
एक तथ्य अवश्य साझा करना चाहूँगा, कि रचनाकर्म का प्रारम्भ अवश्य प्रभावित होने से होता है, लेकिन उसके सतत होने का कारण आज के परिप्रेक्ष्य को ढालने से बनता है.
इस कविता पर बधाइयाँ लें..
शुभेच्छाएँ
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