विसंगति
अंतरंग मित्र
हितैषी मेरे
हँसती रही हैं साँसें मेरी
स्वप्निल खुशी में तुम्हारी
सँजोए कल्पना की दीप्ति
फिर क्यूँ तुम्हारी खुशी के संग
यूँ उदास है मन
आज
अपने लिए ...?
यादों के झरोखों के इस पार
पावन-समय-पल कभी भटकें
कभी लहराएँ, मंडराएँ
ले आएँ रश्मि-ज्योति द्वार तुम्हारे
हँस दो, हँसती रहो, तारंकित हो आँचल
मुझको तो अभी गिनने हैं तारे
सुदूर-स्थित विविध अँधेरों में
रात-बेरात
आज और कल और परसों, और ...
भीगा है रूमाल
कोरों में किरकिरी
और धँसता चला आ रहा है
वीरान आँखों से अंदर
धुँए का अनन्त बवंडर
अनुभव ? कैसा अनुभव ? ... यही...
रक्तधार में पीड़ा तुम्हारी
पीड़ा में जमी रक्तधार
मेरी ... ठंडी गहरी
टप-टप टपकती
रोती रात की उदासी
मन आवारा अकारण अधीर
न ठहरता, न डूबता है
मुझमें मेरा विश्वास
बस टूटता है
चिपक गई है उदासी
गरम कोलतार-सी
आस्था के चेहरे पर
हाय, अब दीए की लौ-सा
क्यूँ काँपता है मन
झूठ था क्या ? झूठा था मैं ?
कि खुशी तुम्हारी मेरी खुशी है ...
--------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
//खूबसूरत रचना//
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीया अन्नपूर्णा जी।
सादर,
विजय निकोर
मर्म में लिपटी इस अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई आ0 विजय निकोर जी.... बधाई...
आदरणीय विजय सर ..इस मार्मिक प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई ..सादर प्रणाम के साथ
आदरणीय विजय सर बहुत ही मार्मिक प्रस्तुति हार्दिक बधाई स्वीकारें
आदरणीय, यह कविता कविताई के क्रम में हो गयी दिखती है. तनिक गहन की आशा बहुत कुछ कहने से रोक गयी.
हार्दिक बधाई.
सादर
हाय, अब दीए की लौ-सा
क्यूँ काँपता है मन
झूठ था क्या ? झूठा था मैं ?
कि खुशी तुम्हारी मेरी खुशी है ..
अपनी अनूठी गहरी अनुभूति का सजीव चित्रण यहाँ स्पष्ट देखने को मिल रहा है, आपको रचना पर बहुत बहुत बधाई आदरणीय विजय निकोर जी
मार्मिक भाव मे भीगी अनुभूति को दर्शाती हुयी रचना पर बधाई आ0 विजय जी!
हाय, अब दीए की लौ-सा
क्यूँ काँपता है मन
झूठ था क्या ? झूठा था मैं ?
कि खुशी तुम्हारी मेरी खुशी है ... ------------ आदरबीय बड़े भाई विजय जी , बहुत सुन्दर आंतरिक अनुभूतियों बहुत अच्छी तरह शब्द दिया किया है आपने !!!!!! हार्दिक बधाई !!!!!
वाह अनुपम चित्रण आदरणीय विजय निकोर जी //हार्दिक बधाई आपको //सादर
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