मैं लेटा हूँ घास पर / सूखी भूरी घास
जिसके होने का एहसास भर है
जमीन गरम है
लेकिन लेटा हूँ
धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी
तपन की अनुभूति
उड़े जा रहे हैं
पंछी एक ओर
शरीर के नीचे
रेंगती चींटियाँ
पास ही खेलते कुछ बच्चे
कुछ लोग भी
इधर-उधर छितरे, घूमते-बैठे
मैं निरपेक्ष
लेटा तकता आसमान
कि कभी टूटकर गिरेगा
और धरती का
रंग बदल जाएगा
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ जी, आपका हार्दिक आभार!
सही दिशा में कार्य कर सकूं, ये प्रयास है और इसमें आपका मार्गदर्शन मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है!
सादर!
आ0 बृजेश भार्इ जी,
-----------//मैं निरपेक्ष
लेटा तकता आसमान
कि कभी टूटकर गिरेगा
और धरती का
रंग बदल जाएगा//============सुन्दर रचना के लिए आपको तहेदिल से हार्दिक बधार्इ। सादर,
भाई बृजेशजी, आपकी रचना में वर्तमान के प्रति निर्लिप्तता और उचाटपन जिस गहनता से निखर कर आये हैं कि आपकी रचना के नायक के परिस्थितिजन्य निठल्लेपन और उसकी उद्विग्नता को बिम्बात्मक स्वर सार्थक रूप से मिला हुआ लगा है. आपरूप कुछ होजाने का भाव बेहतर ढंग से सामने आया है.
ऐसी भावदशा को शाब्दिक करना अब तनिक दुरूह होता जा रहा है. कारण कि, अपनी अभिव्यक्तियों में हर दूसरा रचनाकार दशाब्दियों से इस थकन को शब्द-स्वर देता दीखता रहा है.
किन्तु, आपकी प्रस्तुत अभिव्यक्ति कई मायनों में अभिनव लगी.
आपकी गहन सोच को अब सार्थक दिशा मिल गयी है. सतत रहें.
हार्दिक बधाइयाँ व शुभकामनाएँ.
आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय शिज्जू जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय राम भाई आपका हार्दिक आभार! आपको रचना अच्छी लगी, मेरा प्रयास सार्थक हुआ!
आदरणीय अरुण भाई आपका हार्दिक आभार!
आदरणीया मीना जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय सारथी जी आपका हार्दिक आभार! आपको रचना पसंद आई, मेरा प्रयास सफल हुआ!
आदरणीय जीतेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!
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