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ग़ज़ल : वो पगली बुतों में ख़ुदा चाहती है

बह्र : फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन

 

मेरे संगदिल में रहा चाहती है

वो पगली बुतों में ख़ुदा चाहती है

 

सदा सच कहूँ वायदा चाहती है

वो शौहर नहीं आइना चाहती है

 

उतारू है करने पे सारी ख़ताएँ

नज़र उम्र भर की सजा चाहती है

 

बुझाने क्यूँ लगती है लौ कौन जाने

चरागों को जब जब हवा चाहती है

 

न दो दिल के बदले में दिल, बुद्धि कहती

मुई इश्क में भी नफ़ा चाहती है

---------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 9:23pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, ग़ज़ल पसंद करने के लिए तह-ए-दिल से शुक्रगुजार हूँ।

आपने तक्तीअ पूछी है। देर से जवाब देने के लिए माफ़ी चाहता हूँ। इधर कुछ ज्यादा व्यस्त रहा हूँ। बहरहाल मैं दो अश’आर की तक्तीअ नीचे दे रहा हूँ।

 

मि रे सं / ग दिल में / रहा चा / ह ती है

वो पग ली / बु तों में / ख़ु दा चा / ह ती है

स दा सच / क हूँ वा / य दा चा / ह ती है

वो शौ हर / न हीं आ / इ ना चा / ह ती है

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 8:23pm

बहुत बहुत धन्यवाद विजय मिश्र जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 8:22pm

बहुत बहुत धन्यवाद Shijju Shakoor जी

Comment by रमेश कुमार चौहान on October 27, 2013 at 6:46pm

आदरणीय बहुत ही खूबसूरत गजल कही आपने दाद कबूल करे । विशेषकर

मुई इश्क में भी नफ़ा चाहती है-----------------------------के लिये

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 27, 2013 at 11:27am

वाह वा .. क्या बात .. 

बधाई 

Comment by VISHAAL CHARCHCHIT on October 26, 2013 at 11:36pm

बुझाने क्यूँ लगती है लौ कौन जाने

चरागों को जब जब हवा चाहती है

 
बहुत ही खूबसूरत गजल........ दिली दाद हाजिर है भाई !!!

Comment by vijay nikore on October 26, 2013 at 6:15pm

गज़ल अच्छी लगी। बधाई।

Comment by शरद कुमार on October 26, 2013 at 12:46pm
खूबसूरत ग़ज़ल काही है.....बधाई
Comment by Sushil.Joshi on October 26, 2013 at 7:38am

वाह वाह... बहुत ही खूबसूरत गज़ल कही है आदरणीय धर्मेन्द्र जी..... हार्दिक बधाई....

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 26, 2013 at 12:23am

बहुत खुबसूरत गजल, बधाई आदरणीय धर्मेन्द्र जी

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