रांची का रेलवे स्टेशन.
फुलमनी ने देखा है
पहली बार कुछ इतना बड़ा .
मिटटी के घरों और
मिटटी के गिरिजे वाले गाँव में
इतना बड़ा है केवल जंगल.
जंगल जिसकी गोद में पली है फुलमनी
कुलांचे मारते मुक्त, निर्भीक.
पेड़ों के जंगल से
फुलमनी आ गयी
आदमियों के जंगल में ,
जंगल जो लील जाता है
जहाँ सभ्य समाज का आदमी
घूरता हैं
हिंस्र नज़रों से
सस्ते पोलिस्टर के वस्त्रों को
बेध देने की नियत से ....
फुलमनी बेच दी गयी है
दलाल के हाथों,
जिसने दिया है झांसा
काम का ,
साथ ही देखा है
उसके गुदाज बदन को
फुलमनी दिल्ली में मालिक के यहाँ
करेगी काम,
मालिक तुष्ट करेगा अपने काम
काम से भरेगा
उसका पेट
वह वापस आएगी जंगलों में
जन्म देगी
बिना बाप के नाम वाले बच्चे को.
(फिर कोई दूसरी फूलमनी देखेगी
पहली बार रांची का रेलवे स्टेशन..)
... नीरज कुमार ‘नीर’
पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
ऐसी रचनाए पढ़कर मन बेहद भावुक हो जाता है, उफ़ के सिवा शब्द मुहं से नहीं निकलता | भाई श्री शुशील जोशी जी
ने वह सब कह दिया है जो मै कहना चाहता था | ऐसी मार्मिक रचना के लिए हार्दिक बधाई
फुलमनी के बहाने आज की तमाम कड़वी सच्चाइयों पर प्रहार करती रचना.......!!!!
इस मार्मिक किंतु सच्चाई को बयान करती अभिव्यक्ति के लिए बधाई आ0 नीरज भाई जी...... जाने कितनी फूलमनी इस प्रकार 'आदमियों के जंगल' में फँस कर रास्ता भटक जाती हैं...... और फिर कथित 'जंगली जानवर' उसकी दावत उड़ाते हैं..... मन भर आया है इस प्रस्तुति को पढ़ कर........ आख़िर कब तक हम इस प्रकार की गतिविधियों को विकासशील देश की प्रगति तले नज़रंदाज़ करते रहेंगे.... आख़िर कब तक....??
आदरणीय नीरज भाई , आपकी कविता ने समाज की एक बहुत बड़ी समस्या और उसके निवारण के प्रयासों पर सवाल खड़ा किया है !!!!!
यही हाल छतीस गढ का भी है !!!!! आपको इस रचना के लिये ढेरों दाद !!! बहुत बधाई !!!!
आदरणीय विजय निकोरे जी हार्दिक आभार ..
आपका आभार आदरणीय विजय मिश्र जी ..
बहुत आभार आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
नीरज जी, इस सुन्दर रचना से हृद्य-विदारक सच्चाई को सामने लाने के लिए धन्यवाद।
भगवान करें, हज़ारों-लाखों लोग, हज़ारों "अन्ना" इस उत्पात के विरोध में सामने आएँ।
लचर कानून लचर पुलिस व्यवस्था। लाखों फुल्मनी की व्यथा कह दी आपने नीरज भाई, बधाई।
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