बसंता लगभग एक साल बाद अपने गाँव लौट रहा था । बसंता इतना खुश था कि जो भी वेंडर ट्रेन मे आता वो कुछ न कुछ खरीद लेता, माला, गुड़िया, चूड़ी, बिंदी, सोनपापड़ी और भी बहुत कुछ । पैसे देने के लिए हर बार वह नोटों से भरा पर्स खोल लेता । अगल बगल के यात्रियों ने उसे डांटा भी, मगर भोला भला बसंता हँस कर बात टाल जाता ।
आख़िर वही हुआ जिसका डर था, चलती ट्रेन में किसी ने उसका रुपयों से भरा पर्स निकाल लिया । बसंता ज़ोर ज़ोर से रोने लगा, तब सहयात्रिओं की आवाज़ें हर तरफ गूंजने लगीं ।
"देखा, इसीलिए मैं तुम्हें डाँट रहा था, और खोलो सब के सामने पर्स, करवा लिया न हजारों रुपयों का नुक्सान !
"मैं रुपयों के लिए नहीं रो रहा हूँ बाबू जी, पर्स में मेरी स्वर्गवासी माँ की फोटो थी, मेरे पास उसकी और कोई फ़ोटो भी नहीं है"
तभी किसी की आवाज़ आई "मतिमूढ़ कही का ....."
(मौलिक व अप्रकाशित)
पिछला पोस्ट => लघुकथा : डंक
Comment
आदरणीय जीतेन्द्र गीत जी, आपकी मुक्त कंठ से कि गई सराहना कही न कही नई कथा हेतु प्रेरणा श्रोत बनती है,बहुत बहुत आभार ।
सामाजिक संवेदना को लघु-कथा में जीवंत करना कोई आपसे सीखे....बधाई...........
शुभ दीपावली....................
बहुत सुन्दर लघुकथा
दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें !!
भोला तो भोला ही था | आजकल के जमाने में उसे मतिमूढ़ कही का कहने वाले ही मिलेंगे | माँ को सदा साथ में रखने वाला
भोला बेचारा, उसके आंसू पोंछने वाला कोई नहीं मिलेगा | ऐसे में पढ़ते पढ़ते मन भावुक होना स्वाभाविक है | सुन्दर संदेश
देती रचना के लिए बधाई आदरणीय |
इस लघु कथा में एक बहुत अच्छी सीख है. किसी के सामने नोटों से भरा पर्स नहीं खोलना चाहिये. बसंता तो अपनी खुशी में मुर्खता तो की ही साथ में लालच का बढ़ावा ही दिया है.
शुभ शुभ
सदर
कुंती
इस सुन्दर लघु कथा के लिए बधाई।
क्या पता बसंता को मतिमूढ़ कहने वाला स्वयं कैसा हो..? हो सकता है, ऐसी परिस्थिति मैं वो भी मतिमूढ़ ही कहलाये,
आदरणीय आपकी लघुकथाओ में अक्सर, इस रंगबिरंगी दुनिया से, हटकर एक वास्तविक रंग देखने को मिलता है, आपको बहुत बहुत बधाई
ह्रदय से आभार आदरणीय अजीत शर्मा आकाश जी ।
आभार अनुज धनेश कुमार ।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online