यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय ईशावस्योपनिषद के रूप में प्रसिद्ध है जिसके पन्द्रहवें श्लोक के माध्यम से सूर्य की महत्ता को प्रतिस्थापित किया गया है.
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषन अपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥
हिरण्मयेन पात्रेण यानि परम ज्ञान के हिरण्मय पात्र या सुवर्ण पात्र का मुख पिहित है या ढका हुआ है. अर्थात, ब्रह्म (सत्य) का द्वार प्रखर ऊर्जस्विता के तेजस से ढका हुआ है. तत्त्वं पूषन अपावृणु अर्थात्, हे पूषन यानि सूर्य, इसे हटायें, ताकि हमें चेतन के मूल का तत्त्व दीख सके.
कहने का तात्पर्य है, कि परमब्रह्म का ज्ञान सूर्य की प्रखरतम उपस्थिति से आच्छादित है, उसकी अत्यन्त प्रखर किरणों के कारण हम उस ज्ञान का लाभ अपनी भौतिक आँखों से नहीं ले सकते. जो परमात्मा वहाँ स्थित है, वही अपने भीतर विद्यमान है. हम ध्यान द्वारा ही उसे देख पाते हैं. हे पूषन (सूर्य) ! आप अपनी तेजस तनिक मद्धिम करें, ताकि हम मनुष्य भी दिव्य दृष्टि से उसका अवलोकन कर सकें या अनुभव कर हृदयंगम कर सकें, देख सकें. सूर्य की इसी तेजस्विता का सार्थक बखान है आदित्य-हृदय स्तोत्र. जिसका पाठ कर श्रीराम काल विशेष में अपनी मानसिक मलीनता से छुटकारा पा सके थे.
कहने का तात्पर्य है कि सूर्य कई-कई रूपों में जड़-चेतन को प्रभावित करता रहा है. उसी के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करने का माध्यम है सूर्योपासना. सूर्य पृथ्वी ही नहीं समस्त मण्डल की प्रकृति का जनक और पालनहार है. हमारी लौकिक सत्ता के सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण से लेकर महाकार खगोलीय पिण्ड तक उसकी ऊर्जा से भासित ही नहीं, चेतनावस्था में है. उसी सूर्य के प्रति मानवीय कृतज्ञता का द्योतक है राष्ट्र के हृदय प्रदेश यानि बिहार और उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल में श्रद्धा और उत्साह से मनाया जाने वाला अति पवित्र पर्व - छठ पर्व.
कहते हैं कि स्कंदपुराण तथा सम्बन्धित वाङ्गमय में इस पर्व की पूजाविधि वर्णित है.
चैत्र तथा कार्तिक के महीने संक्रान्तिकाल के महीने हैं. इस समय पृथ्वी का तापमान और पृथ्वी की प्रकृति का परिचायक ऋतुएँ परिवर्तन के क्रम से गुजरती हैं. तभी तो फाल्गुन, चैत्र, कार्तिक और अग्रहण मास में समस्त पर्वों का मूल अर्थ शरीर की ऊर्जा को संतुष्ट करना होता है.
छठ का महापर्व भी चैत्र और कार्तिक मास के शुक्लपक्ष के चतुर्थी से सप्तमी के प्रथम प्रहर तक मनाया जाता है. इन दिनों में ब्रह्म के प्रतीक सूर्य और प्रकृति का प्रतीक छठमाता की पूजा-अर्चना होती है. पुरुषार्थ के चारों अवयवों --धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-- की प्राप्ति के प्रति सचेत करने के साथ-साथ स्वास्थ्य के प्रति भी सचेत करते ये अनुशासन मानव के दीर्घायु होने का विन्दु और कारण स्पष्ट करते हैं.
प्रतिदिन दीखने वाला सूर्योदय जहाँ सकारात्मक ऊर्जा का परिचायक है, वहीं अस्ताचल की ओर जाता सूर्य कार्यसिद्धि एवं परिपूर्णता का द्योतक है. छठ पर्व ही एक ऐसा पर्व है जो हमें ऊर्जस्विता को नमन करने के पूर्व कार्यसिद्धि एवं दायित्व-निर्वहन के प्रारूप की ओर कृतज्ञता से झुकने की सीख देता है.
आगत के प्रति उत्साहित होना प्रकृतिजन्य है किन्तु, विगत के प्रति नत होने तथा उसके प्रति सम्मान प्रदर्शित करने की प्रेरणा देता यह पर्व परिपूर्णता को समझने के प्रति जनमानस को सुप्रेरित करता है. हमारे घरों में होने वाली प्रतिदिन की संध्या-बाती या संझापूजा वस्तुतः उसी डूबते सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन ही तो है.
सूर्य की पूजा का मूल मगध क्षेत्र माना जाता है. औरंगाबाद (बिहार) के पास देव नामक स्थान में इस महापर्व का शताब्दियों से साक्षी रहा है. जनश्रुति है कि मगध क्षेत्र के ब्राह्मण और वैद्य सूर्योपासना से अति दीर्घजीवन का मूलमंत्र जान गये थे. सूर्य की महत्ता को प्रतिस्थापित करता हुआ यह पर्व उसी ज्ञान का प्रतिस्थापना है. महाभारतकाल में कर्ण सूर्य को बहुत सम्मान देते थे. इसी कारण कई लोग कर्ण के राज्य अंग (वर्तमान भागलपुर, बिहार) से भी सूर्योपासना को जोड़ते हैं. षष्ठी या छठी माता आद्यशक्ति का छठा भाग मानी जाती हैं. इसी कारण चैत्र और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को आद्यशक्ति की पूजा होती है जिसे सूर्योपासना से जोड़ दिया गया है ताकि सूर्य की शक्ति तथा षष्ठी का लोकहितकारी प्रभाव संयुज्ज्य स्वीकार्य हो सके.
लोक परंपरा के अनुसार सूर्य देव और छठी मइयाका संबंध भाई-बहन का है.
जनसाधारण द्वारा कार्तिक मास में षष्ठी माता या छठ माता के पूजन का विशेष महातम मान लिया गया है. छठ माता वात्सल्य की देवी हैं. नवजातों, शिशुओं और बच्चों के सफल स्वास्थ्य तथा दीर्घजीवन के लिए माता-पिता छठ का महाव्रत लेते हैं. इसी कारण इस क्षेत्र में बच्चे के जन्म के बाद छठे दिन उसकी छठी मनायी जाती है.
जनश्रुति के अनुसार मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी.
विधान :
यह पर्व सात्विकता और शुचिता को अत्यंत उच्च स्थान देने की सीख देता है. चैत्र या कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को मानसिक पवित्रता और शारीरिक शुचिता को सम्मान देते हुए व्रतधारी स्वयं को सामान्य जीवन और दैनिक कार्य प्रणालियों से विलग कर लेते हैं. यह दिन ’नहाय-खाय’ के दिन से प्रसिद्ध है. परिवार के सभी सदस्य इन दिनों शारीरिक शुचिता और मानसिक पवित्रता का बहुत ध्यान रखते हैं. लौकी की सब्जी और अरहर दाल के साथ भात का सेवन विशेष रूप से किया जाता है.
पंचमी को बिना नमक का भोजन किया जाता है. विशेष महातम है गुड़ की खीर का जिसे ’रसियाव’ कहते हैं. प्रसाद के रूप में परिवार के सभी सदस्य इस रसियाव को गेहूँ के आटे की रोटी पर शुद्ध घी के साथ ग्रहण करते हैं. यह व्यवहार ’खड़ना’ या ’खरना’ के नाम से जाना जाता है. व्रतियों का उपवास इसी दिन सायं से प्रारम्भ होता है.
षष्ठी के दिन सायं नदी, सरोवर या तालाब में स्नान कर अस्ताचल के सूर्य की उपासना की जाती है और दूध की धार या गंगाजल से अर्घ्य दिया जाता है. सप्तमी को प्रातःकाल में उगते हुए सूर्य की उपासना करते हुए दूध की धार या गंगाजल से अर्घ्य दिया जाता है और फिर प्रसाद ग्रहण कर व्रत को तोड़ा जाता है. गन्ने, नारियल, मौसमी फल के साथ हरी हल्दी तथा गुड़ और गेहूँ के आटे से बने पकवानों आदि को बाँस की पट्टियों से बने दउरे और सूप में या डाला में सजा कर घाट तक ले जाते हैं. इसी डाले के कारण इस पर्व को डालाछठ के नाम से भी जाना जाता है. ध्यातव्य है कि डाले में सारे पदार्थ स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं.
इस पर्व के वैज्ञानिक प्रारूप को लोक-व्यवहार से जोड़ कर कुछ रूढ़ियाँ बनायी गयीं. ताकि जनमानस लोक-व्यवहार के क्रम में ही उच्च लाभ का धारक हो सके. मान्यताएँ और परिपाटियाँ उसी का लौकिक रूप हैं.
इन्हें और प्रगाढ़ करने के लिए विशेष गीत गाये जाते हैं. इस पर्व का अत्यंत लोकप्रिय गीत ’केरवा जे फरेला घवद से, ओह पर सूगा मेड़ाराय.. मारबों मैं सुगवा धनुख से आदित होहूँ ना सहाय..’ इसका शब्दार्थ यों है -- जो केला घवद (केला के फलों का समुच्चय) में फलता है उस पर (लोभवश) सुग्गा मँडराता है. मैं उस (लालची) सुग्गे को धनुष से मारूँगा/मारूँगी, हे आदित्य, आप सहाय्य न हों.
इसी क्रम में केला के बाद गीत में अन्य सभी फलों को शुमार किया जाता है जो डाला में रखे होते हैं. या, ’कांचहीं बाँस के बहँगिया, बहँगी लचकति जाय..’ अर्थात, कच्चे बाँस की (मेरी) बहँगी है जो (मेरे कंधों पर) लचकती हुई जाती है. आदि-आदि.
यह विदित तो हो ही चुका होगा कि यह एकमात्र पर्व है जिसमें परम पुरुष और प्रकृति की एक साथ पूजा होती है और उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित किया जाता है. प्रतीकों के माध्यम से पर्व मनाने की परम्परा के कारण, दुःख है, कि जन-समाज बाद में पर्वों के मूल अर्थ को गौण करता चला जाता है और उत्सवधर्मिता का रूढ़ प्रारूप त्यौहारी जनोन्माद उसके मन पर हावी होता चला जाता है. यही कारण है कि छठ पूजा को मनाने के क्रम में जो अति पवित्रता अपनायी जाती थी और सात्विकता उसका मूल हुआ करती थी, उसका दिनोंदिन लोप होता जा रहा है.
आवश्यकता है, प्रकृति के मूल रूप और उसके सु-अर्थ के प्रति आग्रही होने की तथा अपनाये जाने वाले सात्विक आचरण के प्रति कृतज्ञ होने की. अन्यथा मानव और प्रकृति का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध हाशिये पर चला जायेगा. जोकि हो रहा है. इससे प्रकृति का क्या विनाश होगा, मनुष्य का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा. यही कारण है प्रकृति की विभिषिका दिनोंदिन क्रूरतम होती जारही है.
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-सौरभ
Comment
आदरणीय शरदिन्दुजी, आपकी सारगर्भित नम्रता अपने पारस्परिक परिचय की थाती है.
यह अवश्य है कि भारत के सभी पर्व और त्यौहार ऋतुओं तथा पारिस्थिक खगोलीय-संरचना को संतुष्ट करने के कारण अनुमन्य और स्वीकार्य हुए हैं. उनकी पैठ जन-मानस में कराने के लिहाज़ से बादमें कई-कई किंवदंतियाँ जोड़ दी गयी हैं. जैसा कि हर जागरुक सभ्यता में होता है.
लेकिन मूल अर्थ का हाशिये पर जाना और जनोन्माद का लगातार प्रभावी होते जाना उनकी महत्ता ही नहीं उनकी प्रासंगिकता पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा करने लगता है.
ऋतुओं के जिस संक्रान्तिकाल में छठ जैसा पर्व मनाया जाता है उस समय वाइरल रोगों की बहुतायत होती है. बच्चे अपनी कोमलता और कमजोर इम्यून सिस्टम के कारण सबसे अधिक प्रभावित होते हैं. ऐसे में हमारे पूर्वजों और मनीषियों को शारीरिक शुचिता और वातावरणीय पवित्रता को मान देने का सबसे उचित साधन लगा होगा ऐसे पर्व की अवधारणा. इस पर्व की नैसर्गिकता समाप्त न हो इसके प्रति समाज को जागरुक करना अधिक आवश्यक है.
आप जैसे वरिष्ठ वैज्ञानिक को मेरा लेख पसंद आया यह मेरे लेख की सफलता है.
सादर धन्यवाद
वीनस भाई.. हा हा हा हा.. . आपका यह कॉम्प्लिमेण्ट रोचक लगा.
अब इस वर्ष तो नहीं, अगले वर्ष छठ पूजा के पहले याद दिलाइयेगा ताकि ’किसी बड़े अखबार के चीफ़ एडीटर’ से इस लेख को साझा किया जा सके और खुशी से उसके पगलाये स्वरूप का आनन्द लिया जा सके. .. हा हा हा हा...
बहुत-बहुत धन्यवाद
आदरणीया अन्नपूर्णाजी, आप द्वारा इस लेख पर मिला अनुमोदन आश्वस्तिकारी है.
साभार
आदरणीय सौरभ भैया,
छठ पर इस विस्तृत लेख ने कई धारणाओं और पूर्वाग्रहों को बदला है या हटाने का प्रयास किया है.
जिनका सम्बन्ध बिहार या उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल से नहीं है उनके लिये छठ का पर्व एक राजनैतिक पर्व है. जिस के माध्यम से दिल्ली में इस क्षेत्र के लोगों को राजनैतिक रूप से लुभाया जाता है और मुम्बई में इस पर हंगामा होता है... इस पर्व को बिहार में राजकीय पर्व की तरह महत्व दिया जाता है.
इस पर्व की शुचिता और नियमों के इतने कडे़ मापदण्ड हैं कि इसे करने वालों के प्रति दूसरों के मन में स्वयमेव श्रद्धा उपजती है और हृदय नमन करता है. जहाँ तक हो सके अन्य सभी छठ करने वालों की हर संभव सहायता करते हैं. यहाँ तक कि गेंहू पीसने वाले और गाडी से सामान ढोने वाले सभी स्वयं शुद्धता को प्रश्रय देते हैं और सामान को धो कर केवल छठ करने वालों का काम करते हैं...
ये एक अलग ही अनुभव है जिसे उस परिवेश में रह कर ही जीया जा सकता है..
सादर.
धार्मिक और वैज्ञानिक आधार पर लेख महत्त्वपूर्ण नजर आ रहा है, समयाभाव के कारण पुनः मनन कर जानकारी प्राप्त कर पाउँगा | बहरहाल ऐसे महत्वपूर्ण लेख के जरियेजान्कारी देने के लिए हार्दिक साधुवाद आदरणीय
आदरणीय सौरभ जी, यद्यपि आपकी रचनाएँ किसीके प्रमाणपत्र की मुखापेक्षी नहीं होतीं मेरे जैसे नितांत मूढ़ को भी आपने एक धार्मिक वृत्तांत के प्रति आकर्षित किया. यह आपकी रचना की सार्थकता का प्रमाण है. आपकी यह सुंदर प्रस्तुति मनोरंजक भी है और ज्ञानवर्धक भी. साधु साधु.
इस लेख को बिहार के किसी बड़े अखबार में भेज दिया जाए तो चीफ एडिटर देख कर खुशी से पगला जायेगा :)))))))
आदरणीय सौरभ जी छठ महापर्व की बहुत ही सुंदरतम जानकारी साझा करने के लिए आपका हार्दिक आभार ।
भाई अतेन्द्रजी, आपको लेख रुचिकर और ज्ञानवर्द्धक लगा मेरी कोशिश सफल हुई.
हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय रविकरजी, आपका सादर धन्यवाद
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