मंदिरों में है बसेरा मस्जिदों में घर तेरा
ऐ परिन्दा बोल आख़िर कौन है रहबर तेरा ?
तेरे ज़ख्मों को भरेगा कौन ऐ हिन्दोस्तां ?
मुददतों से है पड़ा बीमार चारागर तेरा
अम्न के दुश्मन ने फिर ओढ़ा है चाँदी का नक़ाब
हो न जाये बेअसर इस बार भी पत्थर तेरा
इस तरफ मोहताज टूटी खाट को आम आदमी
उस तरफ मख़मल पे सोता है हर इक नौकर तेरा
सोच दिल पे हाथ रखकर ऐ वतन के नौजवां
हादसों के बाद क्यों आता है नाम अक्सर तेरा
.
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई .. वाह वाह
खूबसूरत प्रस्तुति है आ0 सुशील भाई जी...... हार्दिक बधाई....
आदरणीय सुशील भाई , लाजवाब गज़ल कही है !!! ढेरों बधाई स्वीकार करें !!!
अम्न के दुश्मन ने फिर ओढ़ा है चाँदी का नक़ाब
हो न जाये बेअसर इस बार भी पत्थर तेरा -वाह वाह! ये शेर बहुत बढ़िया लगा भाई !!!!!
(अंतिम शेर का अंतिम मिसरा एक बार और देख लें )
मंदिरों में है बसेरा मस्जिदों में घर तेरा
ऐ परिन्दा बोल आख़िर कौन है रहबर तेरा ?
कोई जवाब नही आपकी इन पंक्तियों का
बहुत ही खूबसूरत ।
रचना भावपूर्ण है , हार्दिक शुभकामनायें सुशील जी !!
बेहतरीन शुरुआत i
रंग लाती है हिना पत्थर पे घिस जाने के बाद
प्रयास सराहनीय है
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