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बह्र- "रमल मुसम्मन महजूफ"
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मुन्तज़िर अरमाँ सभी हाथों से ढा देते
ऐ ख़ुदा हमको अगर पत्थर बना देते
इक समंदर हम नया दिल में बसा देते
तुम अगर आँसू हमें पीना सिखा देते
आजिज़ी होती न दिल में तीरगी होती
बेजुबाँ होते अगर तुम बुत बना देते
रूह प्यासी क्यूँ ये सहरा में खड़ी होती
प्यार का चश्मा अगर दिल में बहा देते
दिल मुहब्बत में धड़कता ये हमारा भी
तुम अगर उल्फत भरे नगमे सुना देते
इक फ़सुर्दा फूल चाहत में हुए तेरी
फिर महक जाते अगर तुम मुस्कुरा देते
गमज़दा बेशक़, नहीं मगरूर हम देखो
लौट आते, तुम अगर मुड़ कर सदा देते
काँपती चौखट न दीवारें हिला करती
प्यार के आधार पर जो घर टिका देते
तल्खियां सब “राज” दिल में दफ्न कर जाती
ये जमीं तो क्या सितारे भी दुआ देते
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आजिज़ी=उकताहट
फ़सुर्दा=मुरझाये हुए
मुन्तज़िर=प्रतीक्षारत
तल्खियां =कडवाहट
तीरगी =अँधेरा (गम )
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
(संशोधित)
Comment
राजेश मृदु जी ग़ज़ल पर आपकी प्रशंसा मेरे लेखन को सार्थक कर रही है दिल से आभारी हूँ
वाह-वाह, बहुत सुंदर गज़ल, हार्दिक बधाई आपको इस प्रस्तुति पर, सादर
जीतेन्द्र जी ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया पाकर हर्षित हूँ ग़ज़ल के शेर प्रभावित करें पाठकों के दिल तक पंहुचे और एक लेखक को क्या चाहिए ,दिल से आभारी हूँ
आजिज़ी होती न दिल में तीरगी होती
बेजुबाँ होते अगर तुम बुत बना देते..........क्या बात है, बहुत खूब शेर
काँपती चौखट न दीवारें हिला करती
प्यार के आधार पर जो घर टिका देते........यह शेर तो एक सार्थक सन्देश दे रहा है
बेहद सुंदर गजल, आपके द्वारा नीचे दिए शब्दार्थ से सरलता से भाव स्पष्ट हुए, हम जैसे पाठकों के लिए, गजल पर हृदय से बधाई स्वीकारें आदरणीया राजेश जी
प्रिय गीतिका ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना ह्रदय से स्वीकार लेखन सार्थक हुआ सस्नेह.
क्या शेअर कहा है आपने! वाह! वाह!
गमज़दा बेशक़, नहीं मगरूर हम देखो
लौट आते, तुम अगर मुड़ कर सदा देते
खूब गजल हुयी! बधाई!
प्रिय अरुन शर्मा आपको ग़ज़ल पसंद आई आपकी दाद दिल से स्वीकार ,आभार एवं शुभकामनायें.
आदरणीय वीनस जी आपकी सराहना पाकर लगता है मेहनत सफल हुई मेरा लिखना सार्थक हुआ ग़ज़ल धन्य हुई ,दिल से आभारी हूँ
आदरणीय अखिलेश कृष्ण जी तहे दिल से आभार आपका
बैद्यनाथ सारथि जी ग़ज़ल पर आपकी प्रशंसा पाकर हर्षित हूँ मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से आभार आपका
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