गूंजती थी जब खमोशी, हादसे होते रहे |
रात जागी थी जहां पर दिन वहीँ सोते रहे ||
अनमने से भाव थे वह अनमनी सी थी नजर
अनमने सिंगार पर ही मुग्ध हम होते रहे ||
कौंध कर बिजली गिरी वसुधा दिवाकर भी डरा,
कुंध तनमन क्रोध संकर बीज हम बोते रहे ||
भावना विचलित हुई जब चीर नैनो से हटा,
चार अश्रु गिर धरा पर माटी में खोते रहे ||
पीर बढती ही गई जब भावना के वेग से,
हम किनारे पर रहे हर शब्द को धोते रहे ||
गुम गए फिर शब्द सारे बह गए नद नीर में,
तब जनाजे का उठा छः गज कफ़न ढोते रहे ||
अब नजर आती नहीं है, घुप अँधेरे में किरण,
बैठकर तनहा हमी, हँसते रहे रोते रहे ||
मौलिक/अप्रकाशित.
Comment
रचना को पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी जी. ओ बी ओ की सभी चर्चाएँ सदैव लाभकारी ही रही हैं.सादर.
सभी शेर अन्तः तक पहुँचने की काबिलियत रखते हैं...
पर इस शेर नें बहुत गहरे छुआ
अनमने से भाव थे वह अनमनी सी थी नजर
अनमने सिंगार पर ही मुग्ध हम होते रहे ||
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
हार्दिक शुभकामनाएँ
साथ ही इस पर बहस कर ज्ञान देने वाले सभी जनों का आभार
जी ! सहमत हूँ आपसे आदरणीय सौरभ जी.सादर.
आदरणीय वीनस जी सादर, इस कमी को मैं आदरणीय निलेश जी के द्वारा बताने पर ही स्वीकार कर चुका हूँ. सादर.
शंका सही भी है ..
आँसू उचित है.. :-))))
आदरणीय
ग़ज़ल अच्छी कही अशआर पसंद आये
अश्रु के २२ मात्रा अनुसार प्रयोग पर शंकित हूँ ...
वैसे बह्र को और उसके अनुसार ग़ज़ल के मिसरों को वज़्न को बाँधना पहला काम होना चाहिये, वर्ना सोच, भाव, उसके अनुसार कहन साधना संभव ही नहीं होगा.
ऐसा फिर न कहियेगा.. :-))))
आपके मिसरों का वज़्न २१२२ २१२२ २१२२ २१२ प्रतीत हुआ मुझे.
यह इस मंच पर सदा से कहा जाता रहा है कि हर ग़ज़लकार अपनी ग़ज़ल के मिसरों के वज़्न को अवश्य उद्धृत कर दे ताकि पाठकों को ही नहीं खुद ग़ज़लकार को भी आश्वस्ति रहे कि मिसरों के वज़्न में भटकाव नहीं हो रहा है.
और, सही शब्द हिन्दी कुंध नहीं कुंद होता है.
सादर
आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, आपके द्वारा इस व्याख्या से अभिभूत हूँ. जरूर कुछ शेर दोषपूर्ण हो गए हैं. मगर ये भी सत्य है की मैंने इसे जब इसे लिखा था तो गजल की तरह मानकर या कोई बहर निश्चित करके नहीं लिखा था. हाँ प्रस्तुति के पहले कुछ कांट छांट तो जरूर की होगी. मैं तीनो शेर जो दोषपूर्ण हो रहे हैं उनको सुधारने का प्रयास करूंगा. "कुंध या कुंद" जब कुछ भी सोचने समझने की शक्ति नहीं होती उस परिस्थिति के लिए हमारे इधर प्रयोग किया जाता है. उसी का मैंने उपयोग किया है. अन्य शेर पर आपसे सराहना पाकर रचना कर्म सार्थक हुआ. सादर.
गूंजती थी जब खमोशी, हादसे होते रहे |
रात जागी थी जहां पर दिन वहीँ सोते रहे ||
ग़ज़ब का मतला हुआ है आदरणीय अशोकभाई ! रात के जिस जगह जागने की बात हुई है उसी स्थान पर दिन का सोता हुआ बताया जाना ग़ज़ब का माहौल रच रहा है. इस मतले पर हृदय से धन्यवाद.
अनमने से भाव थे वह अनमनी सी थी नजर
अनमने सिंगार पर ही मुग्ध हम होते रहे ||
वाह वाह ! आदरणीय क्या की ग़ज़ब की कहन है और कितने गहन भाव हैं ! इस सिधाई पर कौन न मर जाये ..
कौंध कर बिजली गिरी वसुधा दिवाकर भी डरा,
कुंध तनमन क्रोध संकर बीज हम बोते रहे ||
शेर का भाव बहुत व्यापक है. लेकिन व्याकरण की दृष्टि से यह दोषपूर्ण हो गया है. वसुधा दिवाकर दोनों के डरने की बात है तो डरा कह कर क्रिया को एकवचन में यानि अशुद्ध रूप से लिया गया है. डरा की जगह डरे होना चाहिये, है न ? लेकिन ऐसे में फिर तकाबुले रदीफ़ का भी डर भी रहेगा. और कुंध का अर्थ मुझे नहीं मालूम पड़ा.
भावना विचलित हुई जब चीर नैनो से हटा,
चार अश्रु गिर धरा पर माटी में खोते रहे ||
चीर नैनों से हटा .. अपने आप में अभिनव है यह प्रयोग.
पीर बढती ही गई जब भावना के वेग से,
हम किनारे पर रहे हर शब्द को धोते रहे ||
वाह वाह वाह ! बहुत सुन्दर भाव प्रस्तुति आदरणीय !! बहुत बहुत बधाई इस शेर पर ! उला की आखिरी मात्रा ए को हटा दिया जाता, तो उचित होता.
गुम गए फिर शब्द सारे बह गए नद नीर में,
तब जनाजे का उठा छः गज कफ़न ढोते रहे ||
ओह ! क्या कहें इसपर !!
अब नजर आती नहीं है, घुप अँधेरे में किरण,
बैठकर तनहा हमी, हँसते रहे रोते रहे ||
कमाल कमाल कमाल .. हर तरह से कमाल हुआ है यह शेर !
भरपूर दाद है इस ग़ज़ल के होने पर.
शुभ-शुभ
सादर प्रणाम, रचना सराहने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय विजय निकोर साहब.
बहुत ही खूबसूरत गज़ल लिखी है। बधाई, आदरणीय।
सादर,
विजय निकोर
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