हाले दिल जो छुपाने के काबिल न था ।
क्या कहूं मै सुनाने के काबिल न था ।
इस ज़माने ने मुझको नकारा नहीं
मै तो खुद ही ज़माने के काबिल न था ।
इस लिए वो मुझे आज़माते रहे ,
मै उन्हें आज़माने के काबिल न था ।
रंग तनहाइयों में ही भरने लगा ,
वो जो महफ़िल सजाने के काबिल न था ।
बोझ रस्मों रिवाज़ों के कुछ भी न थे ,
पर उन्हे मै उठाने के काबिल न था ।
सूख कर दरिया वो राह में खो गया ,
जो सागर को पाने के काबिल न था ।
मौलिक व अप्रकाशित
नीरज
Comment
प्रेम जी
आप कहते है - काबिल न था
पर आपकी काबिलियत का कोई मुकाबिल न था i
बहुत सुन्दर ग़ज़ल है i
नीरज जी, किस वजन पर आपने ग़ज़ल कही है, कृपया लिख दें, फिर मैं आता हूँ इस प्रस्तुति पर ।
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