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ख़्वाबों की हसीन शाम दें ………

ख़्वाबों की हसीन शाम दें ………


क्यूँ
बेवज़ह की
तकरार करती हो
इकरार भी करती हो
इंकार भी करती हो
खुद ही रूठ कर
छुप जाती हो
अपने ही आँचल में
झुकी नज़रों से
फिर किसी के
मनाने का
इंतज़ार भी करती हो
तुम जानती हो
तुम मेरी धड़कन हो
तुम मेरी साँसों की वजह हो
हम इक दूसरे की
पलकों के ख्वाब हैं
कोई अपने ख्वाबों से
रूठता है भला
तुम्हारा ये अभिनय बेमानी है
वरना इस ठिठुरती रात के
जलते अलाव में
हौले से तुम्हारे लबों से निकला
माई लव का सम्बोधन
पिघल गया होता
सर्द सवेरे में
खिड़की के शीशे पर
जमी ओस की बूंदों पर
तुम्हारी अंगुली की पोर से बना
धड़कते दिल का चित्र
सूर्य रश्मियों की भेंट चढ़ गया होता
चलो
अपनी निगाहों के इंतज़ार को आराम दें
अपनी मुहब्बत को
आगोश का अंज़ाम दें
आओ इस शब् को
एक महकती पहचान दें
ख़्वाबों की हसीन शाम दें
ख़्वाबों की हसीन शाम दें ………

सुशील सरना


"मौलिक एवं अप्रकाशित "

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Comment by शिज्जु "शकूर" on November 21, 2013 at 10:22pm

आदरणीय सुशील जी एक आला दर्जे की प्रस्तुति है वाह दिली दाद कुबूल करें

कृपया ध्यान दे...

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