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"क्या? आपने धूम्रपान छोड़ दिया? ये तो आपने कमाल ही कर दिया।"
"आखिर इतनी पुरानी आदत को एकदम से छोड़ देना कोई मामूली बात तो नहीं।"
"सही कहा आपने, ये तो कभी सिगरेट बुझने ही नही देते थे।"
"जो भी है, इनकी दृढ इच्छा शक्ति की दाद देनी होगी।"
"इस आदत को छुड़वाने का श्रेय आखिर किस को जाता है?"
"भाभी को?"  
"गुरु जी को?"
"नहीं, मेरी रिटायरमेंट को।"उसने ठंडी सांस लेते हुए उत्तर दिया।
.
.
(मौलिक व अप्रकाशित) 

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Comment by बृजेश नीरज on December 6, 2013 at 10:32pm

आदरणीय बागी जी, मेरे विचार से आदरणीय योगराज जी की योग्यता या इस लघुकथा की गुणवत्ता पर प्रश्न-चिन्ह लगाना उद्देश्य नहीं है!

चूँकि इस मंच पर लघुकथा पर बहुत काम हो रहा है इसलिए इस विधा पर एक लेख आवश्यक है!

यदि आदरणीय योगराज जी ही इस पर कुछ लिखें तो उत्तम रहेगा! हम लोगों को भी इस विधा की जानकारी प्राप्त हो सकेगी!

सादर! 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 6, 2013 at 9:39pm

बृजेश भाई अब तो मैं आदरणीय राहुल देव जी से ही आशान्वित हूँ कि वो लघुकथा पर एक लेख प्रस्तुत करें, क्योंकि मैं जिन्हे अब तक लघुकथा का भीष्म पितामह मानता रहा हूँ और उनकी लघुकथाएं पढ़ पढ़ कर सीखता रहा हूँ उनकी एक बेहतरीन लघुकथा को आदरणीय ने एक सिरे से नकार दिया है |

आदरणीय योगराज सर आपकी लघुकथा पर टिप्प्णी हेतु देर से आना हो रहा है किन्तु रचना पोस्ट होते ही मैंने पढ़ ली थी, और सच कहूं तो एक ईर्ष्या सी हुई कि यह मैंने क्यों नहीं लिखी | इस लघुकथा को पढ़ने के दौरान सेकंड लास्ट लाइन तक कुछ नहीं समझ सका किन्तु अंतिम वाक्य जैसे उठा कर किसी ने पटक दिया, छन् से एक झटके में तन्द्राविहीन हो गया | आज तक पढ़ी लघुकथाओं में यदि ५ बेहतरीन लघुकथा अलग करनी हो तो यह लघुकथा उनमे एक होगी |

बहुत बहुत बधाई आदरणीय गुरुदेव | 

Comment by बृजेश नीरज on December 6, 2013 at 7:25pm

लघुकथा विधा को लेकर आदरणीय राहुल जी ने बहुत ही अच्छे बिंदु उठाये हैं! लघुकथा पर एक लेख इस मंच पर अवश्य होना चाहिए जिससे इसके शिल्प व अन्यान्य बिन्दुओं पर चर्चा संभव हो सके!

सादर!


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 6, 2013 at 10:09am

दिल से आभार भाई शुभ्रांशु जी.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 6, 2013 at 10:09am

भाई राहुल देव जी, आपकी बेबाक राय जान अच्छा लगा, और मैं उसका सम्मान भी करता हूँ। लेकिन मेरे भाई, लघुकथा इस तरह भी लिखी जाती है - आश्वस्त रहें।

Comment by Shubhranshu Pandey on December 5, 2013 at 1:54pm

आदरणीय योगराज जी, 

आवकाश प्राप्ति के बाद वेतन से एक या दो छल्ले कम होते हैं, लेकिन गये हुये छल्ले अपने साथ श्वेतधूम्र दण्डिका के गोल्डेन कश भी साथ ले जाते हैं.

सार्थक सुन्दर कथा.

सादर.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 4, 2013 at 12:31pm

दरअसल मैं खुद अभी इस दौर से बहुत साल दूर हूँ. लकिन इस प्रकार के हालातों से कई दफा दो चार होना ही पड़ जाता है. आपने बिलकुल सत्य कहा कि ज़िम्मेवारियों का बोझ ऐसे हालत पैदा कर ही दिया करता है. आपको लघुकथा पसंद आई यह जान कर बहुत अच्छा लगा, दिल से शुक्रिया भाई अरुण शर्मा अनंत जी.

Comment by अरुन 'अनन्त' on December 4, 2013 at 12:18pm

आदरणीय श्री योगराज सर अभी मैं उस दौर से गुजरा तो नहीं हूँ किन्तु पढ़कर ऐसा लगा मानो मैं स्वयं भी इस दौर से गुजर रहा हूँ शायद इसलिए कि जिम्मेदारियां काँधे पर चढ़कर बैठी हुई हैं. सादर नमन आपकी लेखनी को आपको प्रणाम इतनी सुन्दर लघुकथा हेतु.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 4, 2013 at 10:25am

दिल से शुक्रिया भाई शिज्जू शकूर जी.     


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 4, 2013 at 10:24am

लघुकथा पर आपकी उत्साहवर्धक टिप्प्णी से मेरा हौसला दोबाला हुआ है आ० लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी,सादर आभार।

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