अपनी आवारा कविताओं में -
पहाड़ से उतरती नदी में देखता हूँ पहाड़ी लड़की का यौवन ,
हवाओं में सूंघता हूँ उसके आवारा होने की गंध ,
पत्थरों को काट पगडण्डी बनाता हूँ मैं !
लेकिन सुस्ताते हुए जब भी सोचता हूँ प्रेम -
तो देह लिखता हूँ !
जैसे खेत जोतता किसान सोचता है फसल का पक जाना !
और जब -
मैं उतर आता हूँ पूर्वजों की कब्र पर फूल चढाने -
कविताओं को उड़ा नदी तक ले जाती है आवारा हवा !
आवारा नदी पहाड़ों की ओर बहने लगती है !
रहस्य नहीं रह जाते पत्थरों पर उकेरे मैथुनरत चित्र !
चाँद की रोशनी में किया गया प्रेम सूरज तक पहुँचता है !
चुगलखोर सूरज पसर जाता पहाड़ों के आंगन में !
जल-भुन गए शिखरों से पिघल जाती है बर्फ !
बाढ़ में डूब कर मर जाती हैं पगडंडियाँ !
मैं तय नहीं पाता प्रेम और अभिशाप के बीच की दूरी !
किसी अँधेरी गुफा में जा गर्भपात करवा लेती है आवारा लड़की !
आवारा लड़की को ढूंढते हुए मर जाता है प्रेम !
अभिशाप खोंस लेता हूँ मैं कस कर बांधी गई पगड़ी में ,
और लिखने लगता हूँ -
अपने असफल प्रेम पर “प्रेम की सफल कविताएँ” !
लेकिन -
मैं जब भी लिखता हूँ उसके लिए प्रेम तो झूठ लिखता हूँ !
प्रेम नहीं किया जाता प्रेमिका की सड़ी हुई लाश से !
अपवित्र दिनों के रक्तस्राव से तिलक नहीं लगता कोई योद्धा !
दुर्घटना के छाती पर इतिहास लिखता हुआ युद्धरत मैं -
उस आवारा लड़की को भूल जाऊंगा एक दिन ,
और वो दिन -
एक आवारा कवि का बुद्ध हो जाने की ओर पहला कदम होगा !
.
............................................................... अरुन श्री !
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
इस रचना पर आह और वाह दोनों निकल गई, सादर
एक शब्द - बेजोड़ ! क्या बेजोड़ चित्रपट तैयार किया है ..उम्दा साहब ..उम्दा !
coontee mukerji मैम ,
//अचानक आपने बगीचे में तेज़ाब फेंक दी है.// ....... सहमत ! मैंने भी महसूस किया जलन को ! कविता में भी और जीवन में भी ! दबे हुए आक्रोश को शब्द मिल जाते हैं तो ऐसी कविताएँ हो जातीं हैं ! कभी कोमलता महसूस करूँगा तो वो भी लिखूंगा ! अच्छा लगा ही आप प्रभावित हुई ! आपकी उपस्थिति के लिए आपको सादर धन्यवाद !
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर , आप जैसे सजग और सक्षम वरिष्ट द्वारा सराहा जाना मेरे लिए हर्ष का विषय है ! खुलेपन के विषय में कहना है कि कविता में प्रेम कहीं भी दैहिक सीमा से परे नही जा पाता ! इसीलिए दैहिक इकाइयों में उलझे हुए प्रेम को प्रदर्शित करते बिम्ब कुछ असहज हो रहे हैं ! बाकी ये भी स्वीकार कि मेरे तर्क आपके विस्तार और अनुभवों के समक्ष स्थान बनाने योग्य संभवतः न हों ! आपका दिया सुझाव याद रहेगा और प्रयास रहेगा कि खुलेपन को थोडा नियंत्रित कर सकूँ ! आपको बहुत बहुत धन्यवाद ! मार्गदर्शन करते रहें ! सादर !
बहुत हि मार्मिक आदरणीय अरुन जी मेरी बधाई स्वीकार करें
अरून जी,इतना आक्रोश क्यों? कहीं कहीं कविता में लालित्य न होकर अत्यंत विभत्स हो गया है. शुरुआत इतनी अच्छी अचानक आपने बगीचे में तेज़ाब फेंक दी है.
आपके लिये मंगल कामनाएँ सहित
आदरणीय अरुण भाई , बहुत सुन्दर भावों की , सुन्दर अभिव्यक्ति की है आपने , आपको इस रचना के लिये बहुत बधाई !!!!!
अरुण श्रीवास्तव जी
निसंदेह आपने बहुत सुन्दर भाव उकेरे है और उनकी अभिव्यक्ति
अंतर्मन को छूती है i पर थोडा यदि खुलेपन से परहेज करे तो इसकी
संप्रेषणीयता अवश्य बढ़ेगी i
भाषा भनिति भूति भलि सोई i सुरसरि सम सब कर हित होई i शुभकामनाये i
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