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हाँ

मैं पिघला दूँगा अपने शस्त्र

तुम्हारी पायल के लिए

और धरती का सौभाग्य रहे तुम्हारे पाँव

शोभा बनेंगे

किसी आक्रमणकारी राजा के दरबार की

फर्श पर एक विद्रोही कवि का खून बिखरा होगा !

 

हाँ

मैं लिखूंगा प्रेम कविताएँ

किन्तु ठहरो तनिक

पहले लिख लूँ एक मातमी गीत

अपने अजन्मे बच्चे के लिए

तुम्हारी हिचकियों की लय पर

बहुत छोटी होती है सिसकारियों की उम्र

 

हाँ

मैं बुनूँगा सपने

तुम्हारे अन्तः वस्त्रों के चटक रंग धागों से

पर इससे पहले कि उस दिवार पर -

जहाँ धुंध की तरह दिखते हैं तुम्हारे बिखराए बादल

जिनमें से झांक रहा हैं एक दागदार चाँद !

वहीं दूसरी तस्वीर में

किसी राजसी हाथी के पैरों तले है दार्शनिक का सर !

- मैं टांग दूँ अपना कवच

कह आओ मेरी माँ से कि वो कफ़न बुने

मेरे छोटे भाइयों के लिए

मैं तुम्हारे बनाए बादलों पर रहूँगा

 

हाँ

मुझे प्रेम है तुमसे  

और तुम्हे मुर्दे पसंद हैं !

 .

 .

 .

अरुन श्री !
"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by Arun Sri on October 8, 2013 at 11:30am

आप सभी का हार्दिक आभार जो आपने इस कविता को मान दिया  ! सादर धन्यवाद !


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 26, 2013 at 11:52am

मन को उद्वेलित कर देती सी रचना..

एक भाव अभिव्यक्ति यह भी सही 

सादर शुभेच्छाएं 

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 23, 2013 at 5:59pm

आदरणीय अरुन श्री भाई केवल एक ही शब्द आया इस रचना को पढ़कर निःशब्द हृदयतल से बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.

Comment by राजेश 'मृदु' on September 23, 2013 at 12:55pm

अद्भुत रचना, अप्रतिम भाव । बहुत सुंदर प्रस्‍तुति, सादर

Comment by रविकर on September 23, 2013 at 12:30pm

गजब विद्रोह-
लेती है मोह
आपकी रचना
शुभकामनायें आदरणीय-

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 22, 2013 at 10:53am

बेहद सुंदर रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीय अरुनश्री जी

Comment by Meena Pathak on September 22, 2013 at 7:57am

हाँ
मुझे प्रेम है तुमसे
और तुम्हे मुर्दे पसंद हैं !
.
बहुत-बहुत सुन्दर रचना ..बहुत बहुत बधाई आप को

Comment by vandana on September 22, 2013 at 7:15am

सशक्त रचना आदरणीय 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 22, 2013 at 3:01am

हृदय हारिणी हाड़ारानी के इस देश में विसंगतियों से पगी चाहतों का कोई पारावार नहीं रहा है.


जहाँ एक सुहागिन अपने सिर को थाल में मात्र इसलिए पेश करवा देती है कि उसका पुरुष उसके सौंदर्य में आबद्ध हो अपनी तलवार की चमक से बिदक, कहीं युद्ध क्षेत्र में अपने कर्तव्य मार्ग से हिल न जाये. वहीं एक योद्धा अपनी विवशता और हताशा को अभिव्यक्त करता हुआ निरुपाय-सा दीखता है, जिसके कर्तव्यों को जंग कोई और नहीं बल्कि उसके अनन्य वाम अंग का लालित्य ही होता है !

हद तो यह है कि इन्हीं संदर्भों में एक महारानी मात्र अपने मनस रंजन के लिए नदी में यात्रियों से भरी नाव को इसलिये उलटवा देती है कि उसे देखना होता है कि डूबते हुए लोग कैसे लगते हैं ! और उस महारानी के पुरुष का देहमोह उसकी कुत्सित इच्छाओं को पूरा करते हुए लज्जित तक नहीं होता. दैहिक प्रेम की यह अत्यंत क्लिष्ट मनोदशा है. 

किसी निरुपाय योद्धा या किसी कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति की ऐसी का-पुरुषी विवशताओं को शब्दबद्ध करना किसी रचनाकार का सामाजिक दायित्व के प्रति अदम्य निष्ठा का प्रतीक है जिससे भटकने का लेश मात्र डर भी इस रूप में अभिव्यक्त होता है.

एक सशक्त रचना के लिए हार्दिक बधाई, अरुण श्री.

एक बात:
वैसे, एक अनुरोध अवश्य है, कि ऐसी रचनाओं का वायव्य भाव अति क्लिष्ट तो होता है, किन्तु, साथ ही, अत्यंत विरल भी होता है. जिसकी दशा महीनों या वर्षों चित्त पर हावी रहती है. इस भावदशा से बचे रहें.
शुभेच्छाएँ

Comment by annapurna bajpai on September 22, 2013 at 12:53am
निशब्द करती आपकी रचना , आपको बहुत बधाई आदरणीय अरुण जी ।

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