वह भीगा आँचल
धूप
कल नहीं तो परसों, शायद
फिर आ जाएगी
अलगनी पर लटक रहे कपड़ों की सारी
भीगी सलवटें भी शायद सूख ही जाएँगी
पर तुम्हारा भीगा आँचल
और तुम अकेले में ...
उफ़ ...
तुमने न सही कुछ न कहा
थरथराते मौन ने कहा तो था
यह बर्फ़ीला फ़ैसला
दर्दीला
तुम्हारा न था
फिर क्यूँ तुम्हारी सुबकती कसक
कबूल कर जाती है कसूर
लिख-लिख कर मेरी दहलीज़ पर कुछ ...
साँकल खटकाए बगैर
आँखों ओझल हो जाती है
कसूर ... तो मेरा था
स्नेह माँगता है
धैर्य
थोड़ा और इन्तज़ार
धीरे-धीरे ही सही
आत्मज सत्यों के सहारे
आशंकाओं की छायाओं को ठेलते
जीवन के करघे पर साँसो के सूत से
बुन रहा हूँ ... बुन रहा हूँ
तुम्हारे लिए मैं स्नेह का आँचल
जड़ देता हूँ उस पर पल-पल तुम्हारी
खिलखिलाती हँसी, शर्मीली मुस्कराहटें
चाँदनी भी शरमाई निखर उठती थी जिनसे
जाने किस रहस्यमय असंसारी अपेक्षित क्षण
तुम आओ ... तुम लौट आओ
और तुम्हारे भीगे आँचल को ले
हृदय में रिस रहे स्नेह से मैं
तुम पर यह नया आँचल ओढ़ दूँ ...
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
स्नेह माँगता है
धैर्य
थोड़ा और इन्तज़ार
धीरे-धीरे ही सही
आत्मज सत्यों के सहारे
आशंकाओं की छायाओं को ठेलते
जीवन के करघे पर साँसो के सूत से
बुन रहा हूँ ... बुन रहा हूँ
तुम्हारे लिए मैं स्नेह का आँचल........
वह सर लाजवाब....... क्या शब्द दिए है आपने एहसासों को ....लाजवाब .......बहुत बहुत बधाई आपको
gazab ke makhmalee aihsaason men doobee apritam abhivyakti.....saral shabdon men prastuti ne ise aur bhee mohak bna diya hai...paathak ko ant tak baandhe rakhne men saksham is rachna ke liye haardik badhaaee aa.Vinay Nikor jee
मदिर मदिर मधुर स्म्रतियों अद्दभुत अनुभूतियों से गुजरती हैं आपकी कवितायेँ जहां प्रेम की आह भी है बिछोह की कराह भी है बार बार पढने को आकृष्ट करती है प्रस्तुति ,बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर सृजन हेतु सादर
तुम्हारा न था
फिर क्यूँ तुम्हारी सुबकती कसक
कबूल कर जाती है कसूर
लिख-लिख कर मेरी दहलीज़ पर कुछ ...
साँकल खटकाए बगैर
आँखों ओझल हो जाती है
कसूर ... तो मेरा था
हार्दिक भाव से की गयी स्वीकारोक्ति, सुकून दे गयी मन को और प्रेम को पुनर्जीवन!
हार्दिक बधाई
आपकी रचना में भाव पूर्णत: ओस की बूँद की तरह पवित्र, सजीव चित्रण किये हुए होते हैं, जिन्हें बार बार पढने से मन आनंदित होता है, आपकी लेखनी को नमन, आदरणीय विजय जी, हृदय से बधाई स्वीकारें
आदऱणीय सुन्दर भावाभिव्यक्ति से सुसज्जित रचना है बधायी
कोमल भाव दिल को छू जाते हैं
बुन रहा हूँ
तुम्हारे लिए मैं स्नेह का आँचल
जड़ देता हूँ उस पर पल-पल तुम्हारी
खिलखिलाती हँसी, शर्मीली मुस्कराहटें
चाँदनी भी शरमाई निखर उठती थी जिनसे
जाने किस रहस्यमय असंसारी अपेक्षित क्षण
तुम आओ ... तुम लौट आओ
और तुम्हारे भीगे आँचल को ले
हृदय में रिस रहे स्नेह से मैं
तुम पर यह नया आँचल ओढ़ दूँ .../////////बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति आदरणीय विजय निकोर जी। । हार्दिक बधाई आपको
विजय जी, आपकी रचनाएँ तपती धूप में ठण्ठी छाँव, मरूस्थल में oisis और बर्फ़ीले मौसम में उष्णता का एहसास देते है.....और क्या कहूँ. पढ़ने के बाद आपकी रचना मन में कितने मधुर तार झंकृत कर देते है.आपको साधुवाद.
सादर
कुंती.
आदरणीय निकोर जी
एक वह भीगा आँचल
एक जो आपने बुना
एक वह स्नेह जो थोडा धैर्य मांगता है
वह धैर्य जो उसमे न था पर आप में है
तभी तो आप अब भी पागल है आँचल उढ़ाने को i
भगवान ही आपकी मदद करे i आमीन i
इस खुबसूरत अभिव्यक्ति को प्रणाम i
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