उदास सी थी वो सहर
खामोश स्तब्ध शाम थी
हवा भी कुछ रुकी सी थी
राहों की वो विरानियाँ
आँख में गई ठहर.....
एहसासों की एक लहर
यादों के नर्म बिछोने सी
विरह के लिए खिलोने सी
इश्क की रवानियाँ
रूह को सहलाए हर पहर.....
नदी से निकले एक नहर
अपनी ही धुन में बहती सी
विरक्ति को हाँ सहती सी
छोड़ गई निशानियाँ
दर्द बन गया जहर......
तुझ बिन सूना दिल का शहर
पलकें नम झुकी सी थी
आहटें खटकती सी थी
धुंधली सी कहानियां
जुदाई तेरी है एक कहर......…
जज्बातों में रह जज़्ब इस कदर
वजूद मेरा ना रहे तुझसे जुदा
के अब तू ही तो है मेरा ख़ुदा
हो वक़्त की मेहरबानियाँ
मुझ में आये बस तू नज़र......
वीरान ना हो मेरे दिल का नगर
साथ रह मेरे यूँ मेरे हमसफ़र
रह रूह में रवां मेरे हमनवाज़
रहे इश्क की खुमारियां
कर मुझ पर इतनी सी मेहर.......
(मौलिक और अप्रकाशित )
Comment
किरण आर्याजी, यह कविता संभवतः आपकी उन कविताओं में शुमार होगी जो हो तो जाती हैं लेकिन इसके लिए सार्थक तैयारी नहीं हुई रहती है. भाव सदा की तरह यथोचित संप्रेष्य हैं लेकिन शब्द और विधान साहित्यिकता के भार को ढो सकने में सक्ष नहीं दीखते.
प्रयासरत रहें.
शुभकामनाओं सहित
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