नेकनीयती वृन्द के, मुरझाये..….हैं फूल |
कहकर पुष्प गुलाब का, दिए सैकड़ों शूल ||
बही नाव……..पतवार भी, तूफानों की धार |
बढ़ा प्रेम तब सरित का, जब पाया मँझधार ||
कुल की करुणा कान में, बोली थी चुपचाप |
देख समय सूरज चढा, तू भी इसको भाप ||
अवसर का उपहास है, अनजाने ही हार |
भोग रहे पीड़ा कई, गए समय की मार ||
कागज़ पर लिखता रहा, विरह प्रेम के गीत |
जुडी कलम की छंद से, अनजाने ही प्रीत ||
तप कर भी सूरज ढले, सांझ ढले चुपचाप |
मर्यादा है......वक्त की, शीतलता अरु ताप ||
बोले शब्द चुनाव कर, फिर भी पायी हार |
तत्परता ने हर लिया, शब्द-शब्द का प्यार ||
लुप्त हुआ प्रतिबिम्ब भी, ज्यों ही आयी रात |
फ़ैला था वह शाम को, जाने क्या थी बात ||
रदपट का हिलना लगे, सबको तब ही ख़ास |
जहाँ टूटती आस में, लौटा हो.........विश्वास ||
मौलिक/अप्रकाशित.
Comment
बहुत ही सुन्दर दोहे,बहुत ही सुन्दर प्रवाह ,इस सुन्दर दोहावली हेतु हार्दिक बधाई आपको आदरणीय रक्ताले जी। ... सादर
आदरणीय रक्ताले भाई जी , मनमोहक दोहों के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ !!!!!
आप के दोहों ने सच में मन मोह लिया | सभी दोहे एक से बढ़ कर एक बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय अशोक जी | सादर
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