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नेकनीयती वृन्द के, मुरझाये..….हैं फूल |

कहकर पुष्प गुलाब का, दिए सैकड़ों शूल ||

 

बही नाव……..पतवार भी, तूफानों की धार |

बढ़ा प्रेम तब सरित का, जब पाया मँझधार ||

 

कुल की करुणा कान में, बोली थी चुपचाप |

देख समय सूरज चढा, तू भी इसको भाप ||

 

अवसर का उपहास है, अनजाने ही हार |

भोग रहे पीड़ा कई, गए समय की मार ||

 

कागज़ पर लिखता रहा, विरह प्रेम के गीत |

जुडी कलम की छंद से, अनजाने ही प्रीत ||

 

तप कर भी सूरज ढले, सांझ ढले चुपचाप |

मर्यादा है......वक्त की, शीतलता अरु ताप ||

 

बोले शब्द चुनाव कर, फिर भी पायी हार |

तत्परता ने हर लिया, शब्द-शब्द का प्यार ||

 

लुप्त हुआ प्रतिबिम्ब भी, ज्यों ही आयी रात |

फ़ैला था वह शाम को, जाने क्या थी बात ||

 

रदपट का हिलना लगे, सबको तब ही ख़ास |

जहाँ टूटती आस में, लौटा हो.........विश्वास ||

 

मौलिक/अप्रकाशित.

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Comment

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Comment by ram shiromani pathak on December 11, 2013 at 7:39pm

बहुत ही सुन्दर दोहे,बहुत ही सुन्दर प्रवाह ,इस  सुन्दर   दोहावली  हेतु हार्दिक बधाई आपको आदरणीय रक्ताले  जी। ...   सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 11, 2013 at 5:13pm

आदरणीय रक्ताले भाई जी , मनमोहक दोहों के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ !!!!!

Comment by Meena Pathak on December 11, 2013 at 1:04pm

आप के दोहों ने सच में मन मोह लिया | सभी दोहे एक से बढ़ कर एक बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय अशोक जी | सादर 

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