'साहेब हमरी किडनी ख़राब है I इलाजु चलि रहा है I उनकी जगह हमरे लरिकऊ का नौकरी तो दिहेव मालिक पर अकेलु लरिका नोडा (नॉएडा) चला जाई तो हमार देखभाल कौन करी I इसै हियें लखनऊ माँ जगह दै देव साहेब , नहीं तो ई बुढ़िया मरि जाई I
'हाँ साहेब !" बेटे ने भी हाथ जोड़कर मिन्नत की I
' ठीक है, तुम लोग बाहर जाओ I मै कुछ करता हूँ I"
माँ-बेटे बाहर चले गए I 'थोड़ी देर में माँ को बाहर छोड़ कर बेटा फिर अन्दर आया I
'येस?' - साहेब ने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा I
'सर, मेरी माँ पढ़ी-लिखी नहीं है i मंदबुद्धि है I उसे पता नहीं है कि यहाँ लखनऊ में कोई कैरियर नहीं है I साहेब मुझे नॉएडा में ही ----'
मौलिक /अप्रकाशित
(संशोधित)
Comment
एक ऐसे युवावर्ग का आईना है ये लघुकथा जिनको माँ बाप की चिंता नहीं अपनी स्वतंत्रता की ज्यादा चिंता है जिन्होंने उनको जन्म दिया इतना बड़ा किया वो ही भारी बोझ हो जाते हैं बच्चों पर कि जिस वक़्त उनको उस सहारे की जरूरत होती है वो बचना चाहते हैं ,कहानी का मर्म संवेदनाएं जगाता है ,बहुत -बहुत बधाई आपको आदरणीय गोपाल श्रीवास्तव जी.
आ० गोपाल नारायण जी बहुत ही अच्छी लघु कथा , हार्दिक बधाई संप्रेषित है ।
आ० गोपाल नारायण जी बहुत ही अच्छी लघु कथा , हार्दिक बधाई संप्रेषित है ।
अरुण जी
आपकी भावनाओ का सादर सम्मान i
एक आइना !
दुबारा देखने का मन नहीं है !
गीत जी
आपके विचारो के स्वागत के साथ ही आपका बहुत बहुत आभार i
आदरणीय डा. गोपाल जी, आपकी शंशोधित लघुकथा को पुन: पढने का अवसर मिला, माँ तो माँ होती है, यहाँ माँ की ढलती उम्र में चाहे वो शिक्षित हो या अनपढ़ , एक असुरक्षित भावनायें घेरे हुए है, अपने बेटे को सहेज कर रखना चाहती है, बेटे का अपना प्रक्टिकल अनुभव यह जानता है कि लखनऊ से ज्यादा नोयडा में स्कोप है, किन्तु आज भी कुछ बेटे अपनी स्वतंत्रता को अनुशासन व जिम्मेदारियों की बेड़िया न पहनाते हुए बड़े शहरों में ही रह रहे है, भले ही बड़े शहर में १६०० के १००० हो रहे हो.
आपकी लघुकथा पर हार्दिक बधाई आदरणीय डा. गोपाल जी
सादर!
गीत जी
आपके प्रोत्साहन का आभार i
आदरणीय निकोर जी
आपके आशीर्वाद का आभारी हूँ i
आदरणीया कुंती जी
सादर आभार i
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