कष्ट सहे जितने यहाँ,डाल समय की धूल|
अंत भला सो सब भला ,बीती बातें भूल||
विद्या वितरण से खुलें ,क्लिष्ट ज्ञान के राज|
कुशल तीर से ही सधे ,एक पंथ दो काज||
कृष्ण काग खादी पहन,भूला अपनी जात|
चार दिवस की चाँदनी,फिर अँधियारी रात||
जिसके दर पर रो रहा , वो है भाव विहीन|
फिर क्यों आगे भैंसके,बजा रहा तू बीन||
सफल करो उपकार में,जीवन के दिन चार|
अंधे की लाठी पकड़ ,सड़क करा दो पार||
विटप बिना जो नीर के ,जड़ से सूखा जाय|
सावन का अंधा उसे ,हरा हरा बतलाय||
बुरी बला लालच समझ ,मन का तुच्छ विकार|
जितनी चादर ढक सके ,उतने पैर पसार||
तू देखेगा और का ,भगवन तेरा हाल|
बस करके नेकी यहाँ ,दरिया में तू डाल||
लाया क्या कुछ साथ तू ,जो ले जाए साथ|
छूटेगा सब कुछ यहाँ ,जाना खाली हाथ||
(पुच्छल)
ओबीओ की भीड़ में, रचना खो ना जाय|
जैसे मुँह में ऊँट के ,जीरा मिल ना पाय||
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
सविता मिश्रा जी आपको दोहावली पसंद आई दिल से आभार आपका|
bahut khubsurat .........
आदरणीय विजय निकोरे जी आपको दोहावली पसंद आई हृदय से आभारी हूँ.
इस सुन्दर दोहावली के लिए बधाई, आदरणीया।
प्रिय प्राची आपकी प्रतिक्रिया पाकर दोहावली मुस्कुरा उठी, दिल से आभारी हूँ
पूँछ ज़रूर वार कर रही है :)) इस पूँछ को थोडा सा मुलायम तो किया जाना बनता है... :))----अब तो ठंडी होकर पूरी अकड़ गई है ये पूँछ पर सीधी हो गई :))))))))हाहाहा
बहुत सुन्दर दोहावली आदरणीया राजेश जी
मज़ा आ गया पढ़ कर.... हार्दिक बधाई इस शानदार प्रस्तुति पर..
पूँछ ज़रूर वार कर रही है :)) इस पूँछ को थोडा सा मुलायम तो किया जाना बनता है... :))
सादर.
बैद्यनाथ सारथी जी दोहावली और उसके भाव आपको पसंद आये मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से आभार आपका.
कृष्ण काग खादी पहन,भूला अपनी जात|
चार दिवस की चाँदनी,फिर अँधियारी रात||........क्या बात , क्या बात ! सारे दोहे बहुत अच्छे लगे ..भाव भी निराले हैं ..और फिर मुहावरे का प्रयोग भी उचित है !
आदरणीया कुंती जी कौन ऊँट कौन जीरा ?ना पूछें तो अच्छा है वरना ये पूँछ बस काटनी ही पड़ जायेगी :)))))))
चलो मेरे अपने इस पुच्छल का हाल जानने आ रहे हैं इस ख़ुशी को कायम रहने दो हाहाहा ....
(पुच्छल)
ओबीओ की भीड़ में, रचना खो ना जाय|
जैसे मुँह में ऊँट के ,जीरा मिल ना पाय||.........क्या बात है...कौन ऊँट...कौन जीरा...........?///
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