(विजया घनाक्षरी) ८,८,८,८ पर प्रत्येक चरण में यति अंत में लघु गुरू या नगण
.
१)
शीत मलयज लिए, बदरी मैं नीर भरी
भरती मैं रूप नए , धरती सी धीर धरी
यत्त पंख चाक हुए , उड़ने से नहीं डरी
गरल के घूँट पिए , पीकर मैं नहीं मरी
अगन संताप दिए, प्रत्यक्ष तस्वीर खरी
बहु किरदार जिए , जगत की पीर हरी
परहित भाव लिए, संकल्प से नहीं टरी
पुष्प गुँफ झर गए, डार कभी नहीं झरी
(२)
जितनी भी बार कटा ,मेरा कद और बढ़ा
जब-जब घिरी घटा ,हिना रंग खूब चढ़ा
मृत्ति पिंड कुटा पिटा ,पात्र मजबूत गढ़ा
जितना आकार छटा, कवच गंभीर मढ़ा
उष्मा पर रहा डटा, क्षीर उतना ही कढ़ा
कंटक से पाँव अटा ,निडर आगे ही बढ़ा
गिरी का दमन रटा , शीर्ष पर ताज नढ़ा
कुदरत प्रष्ठ फटा ,पाठ उससे भी पढ़ा
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ.सौरभ जी व्यस्तता के कारण पिछले दिनों ओबीओ पर आना नहीं हुआ आज इस पोस्ट को खोला तो आपकी प्रतिक्रिया पढ़ी ,छंद पर आपकी सराहना से जहां हर्ष ,उत्साह ,आश्वस्ति मिली वहीँ आपके परामर्श से मार्ग दर्शन भी हुआ आपके चिन्हित वर्णों के संयोजन में सुधार करने का प्रयास अवश्य करुँगी आपका हृदय तल से आभार.
आदरणीया राजेश कुमारीजी, बहुत सुन्दर और अनुकरणीय प्रयास !
किसी छंद के शिल्प की यदि उपलब्ध जानकारी कम ही हो तब उस आधार पर रचनाकर्म करना अदम्य विश्वास का परिचायक है. क्यों कि ऐसे में खतरे बहुत अधिक हैं. कथ्य पर तो प्रायः हम सभी कुछ न कुछ तो कह ही लेते हैं, लेकिन शिल्प पर कुछ कहना किसी पाठक के लिए दुधारी तलवार ही होता है. उस हिसाब से तो आपने बेलाग बाउण्ड्री लगा दिया है !.. . :-)))
बहुत-बहुत बधाई.
कथ्य सार्थक है और शैली प्रतिकार की है.
आपके शब्दों से स्त्री जाति की अहमन्यता नहीं दिखती बल्कि उसकी अदम्य उपस्थिति के प्रति आग्रह सामने आता हैं !
स्त्री -- दूब की तरह शाश्वत, मृत्तिका पिंड की तरह पावन. किन्तु उनकी ही तरह दुत्कृत, उनकी ही तरह पद-दलित !
इनके शब्दों में प्रतिकार तो होना ही चाहिये.
आपने रचना में भरसक गेयता बनाये रखी है. यह अवश्य है कि आप निम्नलिखित चरणों को अवश्य देख लें. वर्ण सही हैं लेकिन संयोजन उचित नहीं है -
प्रत्यक्ष तस्वीर खरी
संकल्प से नहीं टरी
कंटक से पाँव अटा
निडर आगे ही बढ़ा
और, कुदरत प्रष्ठ फटा भाषा-शब्द के अनुसार यह बहुत बढिया प्रयोग नहीं हुआ.
बहरहाल, बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ.
सादर
प्रिय अरुन,आपकी प्रतिक्रिया से उत्साहित हूँ रचना आपको पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ ,हार्दिक आभार आपका ,शुभकामनायें
वाह माँ जी वाह दोनों ही छंद लाजवाब रचा है आपने दिल खुश कर दिया आपने. दिल से बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.
जितनी भी बार कटा ,मेरा कद और बढ़ा ... क्या बात कही है आपने जय हो.
विनाश बागडे जी आपको रचना अच्छी लगी ,आपकी उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार
जितनी भी बार कटा ,मेरा कद और बढ़ा
जब-जब घिरी घटा ,हिना रंग खूब चढ़ा..kya khoob mam...wah!
आदरणीया कुंती जी इस रचना से विदुषी महादेवी वर्मा जी की याद आना स्वाभाविक है मैं बदरी नीर भरी उनकी रचना की पंक्ति से मेल खाती है और ये संभव भी है नव रचनाओं में कई बार शब्द सामुच्च्य की पुनरावृत्ति हो जाती है जब की रचना शिल्प भाव आदि में पूर्णतया भिन्न होती है,किन्तु यहाँ भाव भी नारी को लेकर ही हैं ये बात और है की रचना का शिल्प पूर्णतः भिन्न है ,हर चरण में नीर से लेकर धरती ,अग्नि ,मीरा, सीता, तरु डाल आदि बिम्बों से नारी व्यथा को दर्शाया है तो यहाँ सिर्फ मेरी पहचान की ही बात नहीं समस्त नारी पीड़ा की बात है| आपको ये विजया घनाक्षरी पसंद आई सशक्त लगी मेरा लिखना सार्थक हुआ ह्रदय से बहुत आभारी हूँ सादर
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण जी, आपको ये वार्णिक विजया पसंद आई ,आपकी सराहना से प्रोत्साहन मिला लिखना सार्थक हुआ हृदय तल से आभारी हूँ .
'बदरी मैं नीर भरी' ये शब्द मुझे महादेवी जी की रचना की स्वतः याद दिला दी.'मैं नीर भरी दुख की बदली' फिर आपकी पुरी रचना पढ़ी. बहुत सशक्त रचना है जो आपकी दृढ़ इच्छाशकित की परिचायक है.लेकिन-' बदरी मैं नीर भरी' आपकी पहचान पर हावी हो रही है....यह मुझे लगा..यह ज़रुरी नहीं की मेरी बात सही हो.सादर.
आदरणीया राजेश कुमारी जी
बहुत अच्छे शिल्प में बंधी वर्णिक विजया i बधाई हो महनीया i
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