मिसरों का वज़न - २१२२ १२१२ ११२/२२
रौशनी का भला बखान भी क्या !
दीप का लीजिये बयान भी, क्या.. ?!
वो बड़े लोग हैं, ज़रा तो समझ--
उनके लहज़े में सावधान भी क्या !
चाँद बस रौंदता है तारों को
आसमानों को संविधान भी क्या !
आपसी गुफ़्तग़ू में आईने
पूछते हैं, 'कटी ज़ुबान भी क्या' ?
फिर बदन में जो गुदगुदी सी हुई
भूख भरने लगी उड़ान भी क्या ?
पंच-परमेश्वरों की धरती पर
हो गये आज के प्रधान भी क्या !
बन्द कमरों की खिड़कियों से न पूछ
था हवादार ये मकान भी क्या ?
क्यों न हम छूट के निभा ही लें
हर दफ़ा ये लहू-लुहान भी क्या ?
**************
--सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय आशुतोषजी, आपके मुखर अनुमोदन ने मेरे प्रयास को आवश्यक स्थान दिया है.
ग़ज़ल को पसंद करने के लिए हार्दिक धन्यवाद.
शुभ-शुभ
आदरणीया राजेशकुमारीजी, आपको यह प्रयास अच्छा लगा और ग़ज़ल के कुछ अश’आर पसंद आये, इसके लिए हार्दिक धन्यवाद.
सादर
आदरणीय सौरभ सर ...बहुत ही उम्दा ग़ज़ल ..रोजाना जिस तरह की ग़ज़ल हम पढ़ रहे हैं उनसे जुदा अंदाज में ..ग़ज़ल की दिशा में हमारी सोच को एक नूतन आयाम प्रदान करती इस शानदार ग़ज़ल पर आपको हार्दिक बधाई ..ये शेर मुझे बेहद पसंद आये ..सादर प्रणाम के साथ
क्यों न हम छूट के निभा ही लें
हर दफ़ा ये लहू-लुहान भी क्या ?
चाँद बस रौंदता है तारों को
आसमानों को संविधान भी क्या !
आपसी गुफ़्तग़ू में आईने
पूछते हैं, 'कटी ज़ुबान भी क्या' ? ,,,
आदरणीय सौरभ सर ..शानदार रदीफ़ पाठक के सामने सोचने के लिए बिस्तृत आसमान देता है .....
बन्द कमरों की खिड़कियों से न पूछ
था हवादार ये मकान भी क्या ?---------------वाह वाह दिल को छू गया ये शेर
क्यों न हम छूट के निभा ही लें
हर दफ़ा ये लहू-लुहान भी क्या ? ----वाह्ह्ह्ह ..जबरदस्त शेर .....शेरों वाली बात कह गया कब तक बर्दाश्त करे कोई चलो एक बार में ही काम ख़त्म करें ,बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई दिली दाद कबूलें आदरणीय सौरभ जी
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