प्राण-समस्या
सहारा युगानयुग से
फूलों को बेल का, पाँखुरी को फूल का
पत्तों को टहनी का
अब मुझको .... तुम्हारा
बहुत था
बाहों को साँसो के लिए ....
कुछ भी तो नहीं माँगा था
तुमने मुझसे
न मैंने तुमसे .... इस पर भी
स्नेह का अनन्त विस्तार
अभी भी बिछा है बिना तुम्हारे
बारिश की बूँदों में बारिश के बाद
आँगन की सोंधी मिट्टी में
कि जैसे .... तुम आ गए
हर खुला-अधखुला दृश्य
स्मृतिओं के ताल से
प्रकृति में उतार आता है
मेरे थरथराते मौन में पला
संतृप्त स्नेह तुम्हारा,
कह दे कोई इसको झुठलावा
पर जानती हूँ, इससे बड़ा
सृष्टि पर कोई सत्य नहीं है
तुमने तो कभी कोई वायदा नहीं किया था
तभी तो तुम्हारा
वायदा टूटने का कोई सवाल नहीं था
यही सूक्षम सोच मेरा सहारा बनी
बाँधे रखती है संकल्प-शक्ति
मुझमें .... तुममें जीने की
जब भीतर हर बारिश के थम जाने के बाद
ढूँढती हूँ टपकती हुई शेष ज़िन्दगी
का अर्थ
यंत्रवत .... तुम्हारी तलाश में
यही है मेरी प्राण-समस्या !
क्या हुआ !!
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
हृदय से बधाई स्वीकारें आदरणीय
सादर
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति है आपकी, सादर
//तुमने तो कभी कोई वायदा नहीं किया था
तभी तो तुम्हारा
वायदा टूटने का कोई सवाल नहीं था
यही सूक्षम सोच मेरा सहारा बनी// सच! बेहद सुंदर, अंतर की कोमल भावनायें जो जीने का सहारा बनी रहती हैं, बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय जी
तुमने तो कभी कोई वायदा नहीं किया था
तभी तो तुम्हारा
वायदा टूटने का कोई सवाल नहीं था
यही सूक्षम सोच मेरा सहारा बनी
बाँधे रखती है संकल्प-शक्ति
मुझमें .... तुममें जीने की
जब भीतर हर बारिश के थम जाने के बाद
ढूँढती हूँ टपकती हुई शेष ज़िन्दगी
का अर्थ
यंत्रवत .... तुम्हारी तलाश में
यही है मेरी प्राण-समस्या !
क्या हुआ !!
यही सच्चा प्रेम है न कोई शर्त न वादा...... फिर भी अटूट बंधन मन का और भावनाओं का.......बहुत सुन्दर शब्दों से सजाया आपने रचना को
और आपकी भावनाएं पढ़ कर महसूस होती है पाठकों को ……बधाई सर.....
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , हर शब्द से विरह वेदना टपकती सी लग रही है , पाठक भी जिसे भोगने के लिये बाद्य हो जा रहा है । बहुत सुन्दर रचना , बहुत बधाई आपको ।
तुमने तो कभी कोई वायदा नहीं किया था
तभी तो तुम्हारा
वायदा टूटने का कोई सवाल नहीं था
यही सूक्षम सोच मेरा सहारा बनी
बाँधे रखती है संकल्प-शक्ति
मुझमें .... तुममें जीने की
जब भीतर हर बारिश के थम जाने के बाद
ढूँढती हूँ टपकती हुई शेष ज़िन्दगी
का अर्थ
यंत्रवत .... तुम्हारी तलाश में
यही है मेरी प्राण-समस्या !
क्या हुआ !!
.............क्या कहूँ, कभी कभी कुछ न कहना बहुत कुछ कह देते हैं.सादर
कुंती.
आदरणीय निकोरे जी
इस बार आपने तस्लीम कर लिया कि उनका दर्द भी आपका ही अपना दर्द है i
जो आपकी प्राण-समस्या है वह उनकी भी i अलबत्ता आपने इस बार अपना जिक्र नहीं किया i परन्तु --
दोनों ओर प्रेम पलता है i
सखी पतंग ही नहीं , दीपक भी जलता है i बधाई हो i
आदरणीय सर ...
तुमने तो कभी कोई वायदा नहीं किया था
तभी तो तुम्हारा
वायदा टूटने का कोई सवाल नहीं था
यही सूक्षम सोच मेरा सहारा बनी
बाँधे रखती है संकल्प-शक्ति
मुझमें .... तुममें जीने की
अत्यंत गूढ़ भावों को समाहित किये हुए अत्यंत शसक्त रचना हेतु तहे दिल बधाई ..सादर प्रणाम के साथ ..
तुमने तो कभी कोई वायदा नहीं किया था
तभी तो तुम्हारा
वायदा टूटने का कोई सवाल नहीं था
यही सूक्षम सोच मेरा सहारा बनी
बाँधे रखती है संकल्प-शक्ति
मुझमें .... तुममें जीने की
जब भीतर हर बारिश के थम जाने के बाद
ढूँढती हूँ टपकती हुई शेष ज़िन्दगी
का अर्थ
यंत्रवत .... तुम्हारी तलाश में
यही है मेरी प्राण-समस्या !
क्या हुआ !!
बहुत सुन्दर बहुत सुन्दर ..आपकी सभी रचनाएं दिल तक पंहुचती हैं आदरणीय प्रकृति का बिम्ब लिए बहुत कुछ कह जाती हैं चुपके से .बधाई आपको इस अनुपम प्रस्तुति हेतु
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