ये कैसी आधुनिकता है …. …..
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उफ्फ !
ये कैसी आधुनिकता है ….
जिसमें हर पल …..
संस्कारों का दम घुट रहा है //
हर तरफ एक क्रंदन है ….
सभ्यता आज ….
कितनी असभ्य हो गयी है //
आज हर गली हर चौराहे पर ….
शालीनता अपनी सभी …..
मर्यादाओं की सीमाएं तोड़कर हर ……
शिष्टाचार की धज्जियां उड़ा रही है //
बदन का सार्वजनिक प्रदर्शन …..
आधुनिकता का अंग बन गया है ……
आज घर नाम की संस्था ……
शर्मसार है //
हर रिश्ते का ……
नया मायना हो गया है …..
खून के रिश्ते भी …..
बदनाम होने लगे हैं //
जिन बातों से …..
शिष्ट समाज शिष्ट परिवार, शिष्ट सम्बन्धों का ……
निर्माण होता था …..
आज उनका …..
रसातल तक अवमूल्यन हो गया है //
आज नारी को ….
विज्ञापन बना दिया है //
विकृत दृष्टि ने नारी की लाज़ को …..
तार तार कर दिया है //
आज माँ – बाप के हाथ ……
आशीर्वाद को तरसते हैं ….
भाई बहन स्नेह को तरसते हैं //
क्या यही आधुनिक शिष्ट समाज है ?
बदलती परिस्थतियों में बदलाव आवश्यक है ……
लेकिन मर्यादाओं के उल्लंघन पर नहीं //
आधुनिकता समय के साथ आगे बढ़ने का बिगुल है …..
लेकिन अपने संस्कारों की बलि चढ़ा कर नहीं //
शिष्टाचार के संस्कार ….
एक शिष्ट समाज की ……
सिर्फ आधारशिला ही नहीं …..
बल्कि …..
एक स्वर्णिम भविष्य का द्वार हैं //
एक स्वर्णिम भविष्य का द्वार हैं //….
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
aadrneey Dr.Prachi Singh jee, aapne mere vyatha ko smajh kar uspar aapne vichaar rakhe...main unka aabhaar vyakt karta hoon....aapkee ya kisee kee bhee smeeksha kisee rachna ka maan ghtaane ke liye naheen blki uske utthaan ke liye hotee hai...ye baat mujhe vidit hai....ye meree maatr antrvyatha thee jo maine aap tak pahunchaaee....main apne aap ko hamesha aik vidyarthee kee trah maanta hoon aur seekhne ka pryatn karta hoon haalaanki mera ye safar bahut puraana hai....meree teen pustakain prkaashit ho chukee hain aur nayee prkaashaadheen hai....to aisa naheen ki mujhe smeeksha ka mahtav naheen pta ya mujhe vah vaahee ka svaad naheen pta....aapkee baat kuch had tak sahee hai ki hr baav kavita naheen hota magar aapke dil ko agar vo bhaav bhaa gya to aap us bhaav ko kavita ka roop avashy dene ka praytan karengee,mere vichaar men bhaav hee kaviyon ke liye kaavy ka dhratal hai-haan hr kadam pr maine kuch n kuch seekhne ka pryaas kiya hai kyounki mujhe achha lagta hai....aapko yade meree kisee baat ka bura laga ho, ya thes pahunchee ho to main kshma chahta hoon....punah aapka hardik aabhaar ki aapne mere hridy ke udgaaron ko pahchaan us par apnee skaaraatmakta darshaayee....dhnyvaad
aadrneey Saurabh Pandey jee main apne hridy tl se aapke smridh aur skaratmak vcihaaron ka haardik aabhaar vyakt karta hoon aur agar is vaartaalap ke douraan mere se kaoee dhrishtta huee ho ya aapke kaoee tthes lagee ho to kshma chahtaa hoon.aapne meree baat ko sahee rukh diya, baat kee sanvedansheelta ko pahchaan apne madhur shabdon se santusht kiya, main aapka aabhaaree hoon....puhan haardik aabhaar
आदरणीय सुशील सरना जी,
मेरी पूर्व टिप्पणी में सुधि पाठक जनों से किया निवेदन मुझे खेद है की आपके हृदय को व्यथित कर गया...
पर आदरणीय आप उसके पीछे के उद्देश्य को समझने की कोशिश करें...
यह मंच जहां विधापरकता और आपसी समझ से रचनाकारों के लेखन को एक सकारात्मक अकार देते हुए संवारने के लिए कृतसंकल्पित है वहीं पाठकों की पाठकीयता पर भी पैनी दृष्टी रखता है..
पाठकों की प्रतिक्रियाएं ही किसी लेखक के लेखन का आंकलन कर उत्साहवर्धन, संवर्धन, वैचारिक समर्थन, आत्मविश्वास वर्धन आदि करती हैं....
पाठकों को रचना का पाठन करते हुए ध्यान रखना चाहिए की उन्हें कविता के भाव पसंद आये, प्रयुक्त शब्द पसंद आये, अलन्कारिकता पसंद आयी, बिम्ब योजन पसंद आया, शिल्प पसंद आया ...या फिर इन सब का समुच्चय... ताकि परस्पर कोरी वाहवाही न देते हुए एक सार्थक सीखने का मौहौल बने और वो रचनाकार को उसकी रचना के हर आयाम से अवगत करा सकें....
भाईजी मेरी रचनाओं पर यदि सिर्फ वाहवाहियां मिलती है तो मुझे संतुष्टि ही नहीं होती..क्योंकि मुझे सुधार की कहाँ ज़रुरत है ये तो तब पता ही नहीं चलता ....तो रचनाधर्मिता अपनी जगह पर, पाठकधर्मिता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है....
शायद अब आप मेरे कहे से सहमत होंगे..
आपकी अभिव्यक्ति का भाव पक्ष निस्संदेह प्रबल है सशक्त है..जिसकी मैंने भूरि भूरि प्रशंसा की है... पर आदरणीय पर प्रत्येक भाव कविता नहीं होता न....इससे तो आप सहमत होंगे.... भाव प्रवणता जहां कविता का आधार हैं, वहीं कविता के कुछ और भी मूलतत्व अवश्य ही होते हैं... जिन्हें हम सभी ने निरंतर प्रयासरत रहते हुए यहीं मंच पर ही सीखा है.... और ये सभी अवयव रचनाकर्म में धीरे-धीरे स्वतः ही समाविष्ट होने लगते हैं.. बस उनके प्रति सजगता आवश्यक है.
विश्वास है अपना कहा स्पष्ट कर सकी.... आपकी रचनाओं का और आपके हर एक संशय का स्वागत है आदरणीय.
सादर.
आपकी और आप जैसे मानसिक रूप से समृद्ध और वैचारिक रूप से सहयोगी सदस्य-रचनाकारों से ही वर्तमान साहित्य-क्षेत्र में व्याप्त अनुशासनहीनता पर अंकुश लगेगा, आदरणीय. अन्यथा कुछ भी लिखे को रचना कह देने और मनवाने की ज़िद इतनी उच्छृंल होती चली जा रही है कि तनिक सार्थक सुझाव देना गाली देने के समान मान लिया जा रहा है.
आपकी रचनाशीलता की गरिमा उत्तरोत्तर गहन हो..
सादर शुभेच्छाएँ
aadrneey Saurabh Pandey jee rachna par aapke tathyatmak vichaaron ka haardik aabhaar.Sir ye stihtiyaan mere liye nayee naheen hain ....hr manch ka apna lakshy hota, uddeshy hote hain,niyam hote hain jo sabke hit ke liye hote hain.....main in sab baaton ka aadar kartaa hoon....apnee rachnaaon kee smeeksha unke str ko aur bhee oonchaaee prdaan kartee hai....bas khed itna tha ki saamany paathak aur rachnaakaar ke bhaavon ke madhy tippnee dene hetu jo nirdesh preshit kiye gaye unse thoda main aahat hua aur apne manobhaavon ko vyakt kr diya....aapne bhee jis prkaar aik skaaraatmak rukh se smeeksha kee vo mujhe nirutsaahit naheen blki kuch naya sochne ke liye utsaahit kartee hai....aapke shayogaatmak vichaaron ka haardik aabhaar....hr smeeksha kuch n kuch naya krne kee seekh detee hai....yadi meree kaoee baat aapko achhee n lagee ho to kshma chaahoonga....haardik abhaar
आदरणीय सुशीलजी, आपकी इस प्रस्तुति को बहुत ही ध्यान से देख गया. इस पर कुछ कहने के पूर्व कुछ और स्पष्ट करना चाहता हूँ क्योंकि आप इस मंच पर अभी बहुत नये हैं.
हो सकता है इस मंच की कई बातें और पारस्परिक व्यवहार आपको चकित करें, चमत्कृत करें, उत्साहित करें, तो हतोत्साहित भी करें. सारा कुछ आपकी मनोदशा पर उतना नहीं निर्भर करता जितना आपके लिखने के उद्येश्य पर निर्भर करता है.
आप जिस ढंग से अपनी बात प्रस्तुत कर रहे हैं यह एक सार्थक रचनाकर्म न हो कर भावुकता के वशीभूत किसी व्यक्ति का संप्रेषण मात्र है. जिसे तथ्यात्मकता को प्रस्तुत करने का साधन उतना महत्त्वपूर्ण नहीं लगता जितना कि प्रस्तुति हेतु उद्यत होने का रोमांच आकर्षित करता है ! यदि यह मनस-तथ्य वस्तुतः इतना सान्द्र है तो मुझे आगे कुछ नहीं कहना.
लेकिन एक बात स्पष्ट कर दूँ कि यह मंच अपने उद्येश्य के प्रति अत्यंत गंभीर है. यहाँ रचनाकर्म प्रस्तुतीकरण मात्र न हो कर प्रस्तुतियों को सार्थक और साग्रही करने का प्रयास हुआ करता है.
आपकी प्रस्तुत कविता एक ऐसा प्रयास प्रतीत हो रही है जिस प्रयास में अभी सुगढ़ होने की बहुत-बहुत गुंज़ाइश है.
सादर
aa.Dr.Prachi Singh jee, aapne rachna ke bhaav ko jis trah sraaha uske liye haardik aabhaar. Man ye rachna jis roop men ubhree usee roop men arthaat padhy roop men hee srijit kr prastut kiya, hr rachna kisee n kisee bhaav pr aadhaarit hotee hai use rachnaakaar kis roop men prastut karta hai us pr nirbhar rahta hai...maatr vaah vaahee lootne ke liye rachna ko kaoee chola naheen pahnaaya jaata....aik kavi hridy nirmal hota hai...apne bhaavon ko rachna men doob kr likhta hai.....main vyaktigat roop se is baat se ashmat hoon ki gady bhaav ko chhotee chhotee panktiyon men maine atukaant rachna men use manch pr prastut kiya hai.....khed hai aapne rachnaakaar ke bhaavon aur sudhipaathkon ke baaeech ke manobhaavon ko vaichaarikta ke traazoo pr rachnaakaar ke srijan ko aahat ka pryaas kiya hai-spashat roop se kahoon to aapkee tippnee hridy ko vyathit karne vaalee thee isliye naheen ki usmen sujhaav the blki sudhi paathkon aur rachnaakaar ke madhy aisee baatain aik anchaahee dooree ka kaaran bantee hain.....ho sakta hai maine kuch asahaj khaa ho iske liye kshma mngataa hoon...aapka haardik aabhaar
Dr.Prachi Singh jee rachna par aapkee aatmeey prashansa aur sujhaav ka haardik aabhaar
उफ्फ !ये कैसी आधुनिकता है, जिसमें हर पल संस्कारों का दम घुट रहा है .हर तरफ एक क्रंदन है.सभ्यता आज कितनी असभ्य हो गयी है.आज हर गली हर चौराहे पर शालीनता अपनी सभी मर्यादाओं की सीमाएं तोड़कर हर शिष्टाचार की धज्जियां उड़ा रही है .बदन का सार्वजनिक प्रदर्शन आधुनिकता का अंग बन गया है.आज घर नाम की संस्था शर्मसार है. हर रिश्ते का नया मायना हो गया है, खून के रिश्ते भी बदनाम होने लगे हैं, जिन बातों से शिष्ट समाज शिष्ट परिवार, शिष्ट सम्बन्धों का निर्माण होता था, आज उनका रसातल तक अवमूल्यन हो गया है /
आज नारी को विज्ञापन बना दिया है ..विकृत दृष्टि ने नारी की लाज़ को तार तार कर दिया है.आज माँ – बाप के हाथ आशीर्वाद को तरसते हैं, भाई बहन स्नेह को तरसते हैं. क्या यही आधुनिक शिष्ट समाज है ?
बदलती परिस्थतियों में बदलाव आवश्यक है,लेकिन मर्यादाओं के उल्लंघन पर नहीं.आधुनिकता समय के साथ आगे बढ़ने का बिगुल है, लेकिन अपने संस्कारों की बलि चढ़ा कर नहीं.शिष्टाचार के संस्कार एक शिष्ट समाज की सिर्फ आधारशिला ही नहीं, बल्कि एक स्वर्णिम भविष्य का द्वार हैं.
आपकी यह अभिव्यक्ति भाव व कथ्य स्तर पर बिलकुल यथार्थ है सामयिक है और तथ्यात्मक है..जिस हेतु हृदय से बधाई स्वीकार कीजिये आदरणीय सुशील सरना जी.
किन्तु, किसी भी अच्छी वैचारिकता को गद्य में लिखा जाना अच्छा लगता है पर उसे छोटी छोटी पंक्तियों में तोड़ कर अतुकांत कविता का भ्रम रखना सही नहीं.
सुधिपाठक जनों से भी यह निवेदन है कि जिस रचना को पढ़ें उसके शिल्प को भी देखें क्या सिर्फ कुछ भावों की अभिव्यक्ति पर वाहवाही दे देना किसी रचनाकार के भ्रम को और बढ़ावा देना नहीं है ?
सादर.
aa.Giriraj Bhandaari jee rachna par aapkee madhur pratikriya ka haardik aabhaar
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