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रिश्तों की ताप

बर्फ सी ठंडी हथेली में, सूरज का ताप चाहिए

फिर बँध जाए मुट्ठी, ऐसे जज्बात चाहिए ।

बाँध सर पे कफन, कुछ करने की चाह चाहिए

मर कर भी मिट न सके, ऐसे बेपरवाह चाहिए।

मन में उमड़ते भावों को,शब्दों का विस्तार चाहिए

शब्द भाव बन छलक उठे,ऐसे शब्दों का सार चाहिए।

पथरा गई संवेदनाएं जहाँ , रिश्तों की ताप चाहिए

चीख कर दर्द बोल उठे,अहसासों की ऐसी थाप चाहिए।

चीर कर छाती चट्टानों की,नदी की सी प्रवाह चाहिए

अंजाम जो भी हो बस, बढ़ते रहने की चाह चाहिए ।

*************

महेश्वरी कनेरी

-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on December 17, 2013 at 9:55pm

आपकी इस सुंदर रचना को बस एक ' वाह ' चाहिए !!!!!   आदरणीया महेश्वरी जी हार्दिक बधाई ।

Comment by Tapan Dubey on December 17, 2013 at 4:27pm
आदरणीया महेश्वरी जी , एक खूबसूरत रचना के लिए बधाई

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 17, 2013 at 4:08pm

आदरणीया , बहुत सुन्दर रचना के लिये आपको बधाई ॥

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 17, 2013 at 3:19pm

कनेरी जी

आपके परिश्रम और  काव्य साधना को नमन i

Comment by Meena Pathak on December 17, 2013 at 3:03pm

क्या बात है .... बहुत उम्दा | बधाई आप को 

कृपया ध्यान दे...

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