ठिठुरती उँगलियाँ
ठिठुरती काँपती उँगलियाँ
तैयार नहीं छूने को कागज़ कलम
कैसे लिखू अब कविता मैं
बिन कागज़ बिन कलम
भाव मेरे सब घुल रहे हैं
गरम चाय की प्याली में
निकले कंठ से स्वर भी कैसे
जाम लग गया ,कंठ नली में
धूप भी किसी मज़दूरन सी
थकी हारी सी आती है
कभी कोहरे की चादर ओढे
गुमसुम सी सो जाती है
सुबह सवेरे ओस कणों से
भीगी रहती धरती सारी
शायद, रात कहर से आहत होकर
रोती होगी धरती प्यारी
रातें भी तो .जबरन बिन बुलाए
मेहमान सी दुख दाई है
ठिठक गया ,मानो जग सारा
शिथिलता सब तरफ छाई है
क्यों नाराज़ हुआ है
हम से ये मौसम
कैसे लिखू अब कविता मैं
बिन कागज़ बिन कलम
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महेश्वरी कनेरी
मौलिक..एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीया, यह आपकी कोई पहली रचना है जो मैं दख रहा हूँ. आपकी प्रस्तुतियों की गीतात्मकता आशान्वित करती है. सतत प्रयासरत रहें. उससे पहले पटल पर रेगुलर रहें. बहुत कुछ सार्थक होगा.
सादर
जीवन की विषमताओं के चिर संगी मौसम के अवयव भी तदरूप अपने समभाव ही लगते हैं.. इसे खूबसूरत बिम्ब मिले हैं
और इतना उदास भावातिरेक शब्द रूप में ढले भी तो कैसे ?
सुन्दर अभुव्यक्ति है आदरणीया माहेश्वरी जी
हार्दिक शुभकामनाएं
सुन्दर भाव पिरोए हैं। बधाई, आदरणीया महेश्वरी जी।
आदरणीया , बहुत सुन्दर रचना के लिये आपको बधाई ॥
कभी कोहरे की चादर ओढे
गुमसुम सी सो जाती है
सुबह सवेरे ओस कणों से
भीगी रहती धरती सारी
शायद, रात कहर से आहत होकर
रोती होगी धरती प्यारी ------------ ये पंक्तियाँ खास लगीं , हार्दिक बधाई ॥
सुंदर रचना बहुत बधाई , आपको ।
सर्दी पर अच्छा लिखा है आपने मैम, सच कहा सर्दी में उँगलियाँ भी लिखने को तैयार नही होती ! बहुत बहुत बधाई इस सुंदर रचना के मैम…
सुंदर रचना के लिये हार्दिक बधाई.सादर
आदरणीया माहेश्वरी जी बड़ी ही सुंदर रचना , ठंड को परिभाषित करती हुई , बधाई आपको इस रचना हेतु ।
बढ़िया रचना पर हार्दिक बधाइयाँ..... |
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