रिश्तों की ताप
बर्फ सी ठंडी हथेली में, सूरज का ताप चाहिए
फिर बँध जाए मुट्ठी, ऐसे जज्बात चाहिए ।
बाँध सर पे कफन, कुछ करने की चाह चाहिए
मर कर भी मिट न सके, ऐसे बेपरवाह चाहिए।
मन में उमड़ते भावों को,शब्दों का विस्तार चाहिए
शब्द भाव बन छलक उठे,ऐसे शब्दों का सार चाहिए।
पथरा गई संवेदनाएं जहाँ , रिश्तों की ताप चाहिए
चीख कर दर्द बोल उठे,अहसासों की ऐसी थाप चाहिए।
चीर कर छाती चट्टानों की,नदी की सी प्रवाह चाहिए
अंजाम जो भी हो बस, बढ़ते रहने की चाह चाहिए ।
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महेश्वरी कनेरी
-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
इस मंच पर इस प्रस्तुति के साथ आपका हार्दिक स्वागत है, आदरणीया माहेश्वरीजी.
आप जितना हो सके इस मंच पर प्रस्तुत हुई नई-पुरानी रचनाओं को पढ़ती जायें. ढूँढ-ढूँढ कर पढ़ें.
यह अवश्य है कि बहुत कुछ मिलेगा और कई तथ्य स्पष्ट होते जायेंगें.
सादर
बहुत सुन्दर भाव आदरणीया महेश्वरी मैम
शब्द भाव बन छलक उठे,ऐसे शब्दों का सार चाहिए।..महेश्वरी कनेरी mam sunder bhaw
सभी मित्रबंधुओ को उत्साहवर्धक टिप्पणियों के लिए आभार....
भावप्रधान द्विपदियों के लिए हार्दिक बधाई आ० माहेश्वरी कनेरी जी
bahut sundar
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए …………….. |
सुंदर भाव से संजोयी रचना पर बधाई स्वीकारें आदरणीया
पथरा गई संवेदनाएं जहाँ , रिश्तों का ताप चाहिए
चीख कर दर्द बोल उठे,अहसासों का ऐसा थाप चाहिए।..........अति सुंदर
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