2122 2122 2122 2122
गुम्बदों से क्यों कबूतर आज कल डरने लगे हैं
दूरियाँ रख कर चलेंगे फैसले करते लगे हैं
पतझड़ों की साजिशों से, अब बहारों में भी देखो
हर शज़र मुरझा गया, पत्ते सभी झड़ने लगे हैं
अपने ख़्वाबों को खिलाऊँ क्या, पिलाऊँ क्या बताओ
कोई भूखा कोई प्यासा है, सभी मरने लगे हैं
जैसे गोली की किसी आवाज़ से भागे परिन्दे
मुफ़लिसी क्या आ गई रिश्ते सभी कटने लगे हैं
कुछ सियासी फैसलों से और बाक़ी मज़हबों से
देश वासी ख़ेमों- तबकों में सभी बटने लगे हैं
उन खतों का भी सहारा अब कहाँ बाक़ी है मुझको
याद भी ताज़ा नहीं, अब हर्फ़ भी मिटने लगे हैं
एक दिन तो धूप चटकीली कभी हम देख पाते
धूप क्या निकली, उधर से अब्र फिर घिरने लगे हैं
वाकिये सारे पुराने में बहुत तल्ख़ी भरी थी
क्या करूँ मै सारे नग़्मों में वही ढलने लगे हैं
**************************************
मौलिक एवँ अप्रकाशित
**************************************
Comment
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , ग़ज़ल पर आने और उत्साह वर्धन करने के लिये आपका आभारी हूँ ॥
आदरणीय सौरभ भाई -को सप्रेम
लड़्खड़ाते तिफ्ल की उंगली न छोड़िये
मेले में भटक जायेगा , तन्हा न छोड़िये --
ग़ज़लियत का मतलब ?!.. हा हा हा हा..
बताऊँगा नहीं.. आप स्वयं समझें.. :-))))
हाँ, यह भी सही है, कि इसी कारण कहते हैं कि किसी ग़ज़लकार से उसके जीवन में एकाध शेर हो जायें वही बहुत बड़ी बात है. उस एक शेर के होने पहले हज़ारों ग़ज़लों को महीनों पगाना होता है..
सादर
कुछ समय से मैं ओ बी ओ पर कम आ सका हूँ... इस कारण अभी देखा कि यह अच्छी गज़ल पढ़ने से रह गई।
//जैसे गोली की किसी आवाज़ से भागे परिन्दे
मुफ़लिसी क्या आ गई रिश्ते सभी कटने लगे हैं//
//उन खतों का भी सहारा अब कहाँ बाक़ी है मुझको
याद भी ताज़ा नहीं, अब हर्फ़ भी मिटने लगे हैं//
बहुत ही खूबसूरत गज़ल लिखी है, गिरिराज भाई। मज़ा आ गया।
आदरणीय सौरभ भाई , ज़रूर , सौरभ भाई मै मज़बूरियाँ समझता हूँ , रचना पर आपकी आमद का इंतिज़ार रहता है ये भी सच है ॥ गज़ल पर आपकी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया से मेरी मेहनत सफल हुई ॥ गज़ल की सराहना के लिये आपका बहुत शुक्रिया ॥
आदरणीय , ग़ज़लियत को अगर आप एकाध शेर से समझा सकें तो ग़ज़लियत का सही मायने समझने मे आसानी होती ॥ सादर ॥
आदरणीया प्राची जी , गज़ल पर आपकी उपस्थिति से आनन्द हुआ ॥ गज़ल की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका आभार ॥
दो शे र आपको पसन्द आये , लिखना सार्थक हुआ ॥ आपका हार्दिक आभार ॥
प्रस्तुति तक आने में मुझसे देर तो हो ही जाती है. लेकिन विश्वास है. आप मेरी मज़बूरियाँ समझते होंगे.
इस ग़ज़ल का मतला शानदार हुआ है. ग़ज़ब ! इस खयाल पर ढेरो दाद, भाईजी.
उन ख़तों का भी सहारा.. . आय हाय हाय, साहब ! वाह वाह !
या फिर, एक दिन तो धूप चटकीली.. काबिलेदाद शेर. ग़ज़ब !
आपकी कोशिश और कमाल करने लगे, आदरणीय, अग़र आप अब ग़ज़लियत को पगाना शुरु करें, आपके मिसरों में अब रीढ़ दीखने लगी है.
सादर
अपने ख़्वाबों को खिलाऊँ क्या, पिलाऊँ क्या बताओ
कोई भूखा कोई प्यासा है, सभी मरने लगे हैं...................सपनों को पुरजोर कोशिश कर भी पूरा न कर पाने की चिलचिलाहट, बहुत सुन्दर
उन खतों का भी सहारा अब कहाँ बाक़ी है मुझको
याद भी ताज़ा नहीं, अब हर्फ़ भी मिटने लगे हैं..................वाह !
पूरी ग़ज़ल बहुत सुन्दर हुई है..पर ये दो शेर बहुत पसंद आये
हार्दिक बधाई आ० गिरिराज भंडारी जी
आदरणीय आशीष भाई , गज़ल की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
उन खतों का भी सहारा अब कहाँ बाक़ी है मुझको
याद भी ताज़ा नहीं, अब हर्फ़ भी मिटने लगे हैं |
एक दिन तो धूप चटकीली कभी हम देख पाते
धूप क्या निकली, उधर से अब्र फिर घिरने लगे हैं |
सुन्दर ग़ज़ल पर दिली दाद क़ुबूल कीजिये आदरणीय गिरिराज जी !!
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online