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गुम्बदों से क्यों कबूतर आज कल डरने लगे हैं
दूरियाँ रख कर चलेंगे फैसले करते लगे हैं
पतझड़ों की साजिशों से, अब बहारों में भी देखो
हर शज़र मुरझा गया, पत्ते सभी झड़ने लगे हैं
अपने ख़्वाबों को खिलाऊँ क्या, पिलाऊँ क्या बताओ
कोई भूखा कोई प्यासा है, सभी मरने लगे हैं
जैसे गोली की किसी आवाज़ से भागे परिन्दे
मुफ़लिसी क्या आ गई रिश्ते सभी कटने लगे हैं
कुछ सियासी फैसलों से और बाक़ी मज़हबों से
देश वासी ख़ेमों- तबकों में सभी बटने लगे हैं
उन खतों का भी सहारा अब कहाँ बाक़ी है मुझको
याद भी ताज़ा नहीं, अब हर्फ़ भी मिटने लगे हैं
एक दिन तो धूप चटकीली कभी हम देख पाते
धूप क्या निकली, उधर से अब्र फिर घिरने लगे हैं
वाकिये सारे पुराने में बहुत तल्ख़ी भरी थी
क्या करूँ मै सारे नग़्मों में वही ढलने लगे हैं
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
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Comment
आदरणीय गिरिराज भाईसाब ...
जैसे गोली की किसी आवाज़ से भागे परिन्दे
मुफ़लिसी क्या आ गई रिश्ते सभी कटने लगे हैं..आपकी इस बेहतरीन ग़ज़ल का यह शेर समझने में थोड़ी देर लगी लेकिन समझने के बाद बेहद पसन् आया ..ग़ज़ल के लिए तहे दिल बधाई के साथ
आदरणीय भाई साहब पुनः उक्त मिसरा को पढ़ा, तो बात समझ सका, दरअसल "लगे" लगना / महसूस होने के भाव में है, इसलिए सही है, किन्तु ऐसे उलझे मिसरो से बचना श्रेयष्कर होगा |
आदरणीय वैद्य नाथ भाई , आपकी सराहना ने दिल खुश कर दिया , सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ॥ ऐसे ही स्नेह बनाये रखें ॥
आदरणीय बड़े भाई अखिलेश की , गज़ल की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥
आदरणीय गणेश भाई , मुझे तो सही लगा , अगर कुछ गलत हो तो ज़रूर बतायें , ठीक कर लूंगा ।
//डरने लगे हैं और करने लगे है , लिखने से पूरी गज़ल मे रने निबाहना न पड़् जाये , इसी लिये करते लगे हैं लिया हूँ//
तो क्या व्याकरण दृष्टिकोण से उक्त मिसरा सही होगा ?
असरदार मिसरे
कुछ सियासी फैसलों से और बाक़ी मज़हबों से
देश वासी ख़ेमों- तबकों में सभी बटने लगे हैं....उम्दा है साहब
एक दिन तो धूप चटकीली कभी हम देख पाते
धूप क्या निकली, उधर से अब्र फिर घिरने लगे हैं....अहा , क्या अंदाज़े-बयाँ है
छोटे भाई हार्दिक बधाई , पूरी गज़ल अच्छी हुई है ।
आदरणीय अजय भाई , मुझ पर आपके विश्वास के लिये आपका आभारी हूँ ॥ गज़ल की सराहना के लिये आभार ॥
आदरणीय , डरने लगे हैं और करने लगे है , लिखने से पूरी गज़ल मे रने निबाहना न पड़् जाये , इसी लिये करते लगे हैं लिया हूँ , ताकि बाक़ी शेर मे ए निबाहने की ज़रूरत रहे ॥ सादर ॥
//गुम्बदों से क्यों कबूतर आज कल डरने लगे हैं
दूरियाँ रख कर चलेंगे फैसले करते लगे हैं//
आदरणीय गिरिराज भाई साहब, एक बार काफ़ियाबंदी पर ध्यान दें, "करते" सही है तो वाक्य गलत होगा, जरा विचार करें |
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