२१२२/२१२२/२१२
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जब कि हर इक फ़ैसला मंज़ूर है,
फिर भी वो कहता हमें मगरूर है.
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दोष है फ़ितरत का, ज़ख्मों का नहीं,
ज़ख्म जो प्यारा है वो नासूर है.
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ख़ासियत कुछ भी नहीं उसमे, फ़क़त,
वो मेरा क़ातिल है सो मशहूर है.
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नब्ज़ मेरी थम गयी तो क्या हुआ,
जान मुझ में आज भी भरपूर है.
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जिस्म है बाक़ी हमारे दरमियाँ,
पास है, लेकिन अभी हम दूर है.
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बात अब उनसे मुहब्बत की न कर,
लोग समझेंगे, नशे में चूर है.
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बर्फ़ से रिश्ते हुए इस दौर में,
दिल सुलगता सा कोई तंदूर है.
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दिल से पढ़, ये आँख के बस की नहीं,
“नूर” की ये भी ग़ज़ल पुरनूर है.
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मौलिक व अप्रकाशित
निलेश 'नूर'
Comment
शुक्रिया
कमाल आदरणीय कमाल !
आ. Saurabh Pandey ..आ. Dr.Prachi Singh जी
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दूरियाँ बाक़ी नहीं कुछ दरमियाँ,
दिल से दिल लेकिन अभी तक दूर है. ..
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क्या ऐसा करने से शेर का ऐब दुरुस्त होगा ..कृपया मार्गदर्शन करें.
जी कोशिश रहेगी
आपका सादर स्वागत है, आदरणीय नीलेशजी.
मैं मराठी भाषा और हिन्दी भाषा के बीच शब्दों की अक्षरी (हिज्जे) के अन्तर को खूब समझता हूँ. महाराष्ट्र (मुम्बई) से मेरा गहरा ताल्लुक है. लेकिन हिन्दी आखिर हिन्दी है. और इसका अपना संसार और विस्तार है.
आपकी ग़ज़लों के कथ्य की ऊँचाइयों के हम सदा से मुरीद रहे हैं. आपकी उन्नत ग़ज़लों का इन्तज़ार है.
सादर
आ० निलेश जी
बहुत शानदार ग़ज़ल हुई है..हर शेर दिल से लिखा गया है..बहुत सुन्दर
जिस्म है बाक़ी हमारे दरमियाँ,
पास है, लेकिन अभी हम दूर है.............. इस शेर में कुछ ऐब है शायद शुतुर्गुर्बा ..
............................पास है, लेकिन वो हमसे दूर है...... अब, है को (हैं ) करने से बचा जा सकता है
हर शेर पर सादर बधाई स्वीकारे.
आदरणीय नूर साहब, रिवायती तौर पर उसी उदारता से कहूँ तो एक-एक शेर सवा लाख का !
हर शेर पर दिल से ढेरों दाद हैं. .. सिवा निम्नलिखित शेर के जिसमें रदीफ़ गच्चा खा गया है. है की जगह वास्तविक रूप से हैं अपरिहार्य है -
जिस्म है बाक़ी हमारे दरमियाँ,
पास है, लेकिन अभी हम दूर है... .. रदीफ़ के है को हैं करें और इस ग़ज़ल से इस शेर को अलग कर दें. या रदीफ़ को ठीक करने की क़वायद करें.
सादर बधाइयाँ
क्या बात है...
//बर्फ़ से रिश्ते हुए इस दौर में,
दिल सुलगता सा कोई तंदूर है. //
खूबसूरत गज़ल के लिए बधाई।
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