२१२२, २१२२,२१२२, २१२२
क्या सुनाऊं दोस्त तुझको ज़िन्दगानी की कहानी,
चार सू तूफ़ान हैं और अपनी कश्ती बादबानी.
***
जब मिले पहले पहल तुम, ख्व़ाब थे रंगीन सारे,
सुर्ख आँखें हैं मेरी उस दौर की ज़िन्दा निशानी.
***
याद की इन आँधियों में दिल बिखर जाता है ऐसे,
जिल्द फटने पर बिखरती डायरी जैसे पुरानी.
***
देर तक रोता रहा क़ातिल मेरा, मैंने कहा जब,
जान तू ले ले मेरी तो होगी तेरी मेहरबानी.
***
खो गए है हर्फ़ सारे, बुझ गए जज़्बात मेरे,
क्या बने मिसरा-ए-ऊला क्या बने मिसरा-ए-सानी.
***
“नूर” भटकेगा हमेशा टीस इक दिल में छुपाकर,
जो नज़र से कह न पाया काश कह देता ज़ुबानी.
.
निलेश "नूर"
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
इसीलिए दूसरी पर कोशिश की है ..पहली पर नहीं :)
//1) कभी किसी का दिल मत दुखाओ //
यह विन्दु बड़ी विकट परिस्थितियाँ पैदा करता है आदरणीय.. .. :-))
मुझे भी ’पिता पुत्र और उनका गधा’ की कथा याद आ रही है.. !!
सादर
शुक्रिया आ. वंदना जी
शुक्रिया आ. सौरभ सर ...
बचपन में कक्षा चौथी में एक कहानी पढ़ी थी ..हरपाल सिंह नायक था उस कहानी का ..उसमे कुछ 5 सीखों का ज़िक्र है. बाक़ी तीन तो याद नहीं रहीं लेकिन दो सीखें अबतक याद हैं ..
1) कभी किसी का दिल मत दुखाओ
2) ज्ञान की बात कहीं मिले तो सीख लो ...
दूसरी सीख को अमल में लाने की कोशिश करता रहता हूँ ..
सादर
“नूर” भटकेगा हमेशा टीस इक दिल में छुपाकर,
जो नज़र से कह न पाया काश कह देता ज़ुबानी.
कमाल की ग़ज़ल है आदरणीय
जय हो.. . आपका सादर आभार आदरणीय. आपने मेरे कहे को इज़्ज़त दी.
वैसे मैं अपने वाले शेर की सानी पर जो कुछ सोचा है, आप भी सोचियेगा कि आखिर मैंने ऐसा क्यों सोचा.
:-)))
आदरणीय सौरभ सर,
बहुत बहुत आभार .....मेरी भावनाओं को "असली" शब्द देने के लिए ...
बस यही तो मज़ा है OBO का .....मैंने ..बदलाव कर दिया है ..
सादर
देर तक रोता रहा क़ातिल मेरा, मैंने कहा जब,
जान तू ले ले मेरी तो होगी तेरी मेहरबानी... ...
इस शेर ने हिला के रख दिया. इस शेर के होने पर आपको दिल से बधाइयाँ, आदरणीय नीलेश नूरजी.
फिर,
“नूर” भटकेगा हमेशा बस इसी ख्वाहिश कि ख़ातिर,
जो नज़र से कह न पाया काश कह देता ज़ुबानी.
वाह-वाह-वाह !
लेकिन सादर कहूँ तो मैं कुछ यों कहता -
“नूर” भटकेगा हमेशा टीस इक दिल में छुपाये
जो नज़र से कह न पाया क्या कहेगा वो ज़ुबानी ?
आदरणीय, यह कोई सुझाव या सलाह एकदम नहीं है. बल्कि आपके कहे पर मेरा सादर अनुमोदन है. तथा, इस ज़मीन को एक पाठक के तौर पर शिद्दत से जीना है.
सादर
शुक्रिया बृजेश जी
बहुत शानदार ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई!
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