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कटाक्ष -हे ईश्वर ...

हे ईश्वर

.

जूते का फीता बांधकर जैसे ही उठा, सामने किसी अपरचित को खड़ा देख मै चौक गया. लगा की मै सालों से उसे जानता हूँ पर पहचान नहीं पा रहा हूँ. बड़े संकोच से मैंने पूछा-" आप--", मै अपना प्रश्न पूरा करता इस-से पहले ही उन्होंने बड़ी गंभीर आवाज़ में कहा -" मै ईश्वर हूँ".

उन की गंभीर वाणी में कुछ ऐसा जादू था की मुझे तुरंत विश्वास हो गया की मै इस पूरी कायनात के मालिक से रूबरू हूँ. मैंने खुद को संभाला और अपे स्वभाव के अनुरूप उन पर प्रश्नों की झड़ी लगा दी. "मेरा भविष्य, करियर, जॉब आदि आदि". वो चुपचाप सुनते रहे पर बोले कुछ नहीं.

मैंने थोडा नाराज़ हो कर कहा-" संसार में इतना भ्रष्टाचार है, अत्याचार है, गरीब पिस रहा है, जनता बेहाल है फिर भी आप कुछ करते क्यों नहीं?
उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ी और कहा-"ये मेरे बस में नहीं".
मैंने आश्चर्यचकित हो कर कहा –““किन्तु आप तो सर्वेसर्वा है?”

कातर शब्दों में उन्होंने जवाब दिया- अब वो दिन नहीं रहे. पिछले साल हमारी संसद ने "देवपाल" बिल पास किया है. अब हम सभी पर मुक़दमे चल रहे है. अब सारे देवता काम करने से डरते है.

अचानक मेरे मोबाइल की घंटी बजी और मेरा ध्यान उस ओर गया. मौका पा कर ईश्वर अंतर्ध्यान हो गए और तब से मै सोच रह हूँ की क्या हमें निरंकुश "लोकपाल" चाहिए?

.
निलेश 'नूर'
मौलिक व अप्रकाशित 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 20, 2013 at 11:35am

हुज़ूर, राहत.. ! .. :-))

आप क्रिया की प्रतिक्रिया न समझ पाये होंगे, ऐसा सोच भी न पाऊँगा. सर, मैं प्रथम बार आपसे वार्तालाप कर रहा हूँ ? नहीं सर ! मंच और मंच के इतर भी ! आप मेरे अनन्य हैं/रहे हैं.

आप जानते हैं, और आपको पूरी तरह पता है, कि मैं क्या कह रहा हूँ. .. :-))))).

इस लघु कथा की अति उन्नत संप्रेषणीयता को सलाम कि इसने मुझ जैसे अकिंचन पाठक से इतना कुछ लिखवा लिया !

सर, हम इस मंच पर साहित्य को ही मान देते रहे हैं, मान देते रहें.

अब इस संदर्भ पर मैं अब कुछ न कहूँगा.  आपके लिखे को सलाम.

सादर.. 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 20, 2013 at 8:51am

आदरणीय सौरभ सर,
सच कहूँ तो आप का कमेंट इस छ: फुटे इंसान के बारह फुट ऊपर से गया है... विस्तृत टिप्पणी करने में शायद वक़्त लगेगा मुझे. लेकिन एक बात स्पष्ट है कि ये कटाक्ष किसी विचार या सिद्धांत विशेष को कतई संपोषित नहीं करता है और न ही ये लोकपाल विरोधी है.

इस कटाक्ष में मेरा सारा जोर ..निरंकुश शब्द पर है .... असीमित अधिकार दिए जाने के विचार के विरुद्ध है.
ये कटाक्ष 2011 में लिखा था. तब मै एक कंपनी में जनरल मेनेजर के पद पर कार्यरत था और दो तीन बड़े प्रोजेक्ट्स हैंडल कर रहा था.
आन्दोलन से प्रेरित मैनेजमेंट ने HO में एक कमिटी गठित की जिसका काम साइट्स पर हो रहे कार्य की समीक्षा करना था और "तथाकथित भ्रष्टाचार" उजागर करना था. इस कमिटी के पास लगभग असीमित अधिकार भी थे.
कालांतर में इस कमिटी ने ..साईट प्रमुख या अन्य ओहदेदारों के निर्णयों पर प्रश्न उठाए (वो निर्णय ऐसे थे जो पूरी इमानदारी से, कंपनी के हित में लिए गए थे). कुछ procedures introduce की गई ..जिसके तहत लगभग सभी निर्णय ..साईट प्रमुखों द्वारा न लिए जाकर इसी कमिटी द्वारा लिए जाने लगे. चूंकि ये कमिटी ...साइट्स पर न हो कर HO में थी ..अत: इसकी नज़र और नजरिया एकदम भिन्न था. "ऊँट पर बैठ कर बकरी चराने" के प्रयास में ..बहुत से ज़रूरी काम लंबित रहने लगे ...और इमानदारी से काम करने वाले लोग .. निर्णय लेने से बचने लगे ...इस डर से कि फालतू 'एक्सप्लेनेशन कौन दे'... ...बहुत से अच्छे और इमानदार engineers ..दूसरी नौकरी ढूँढने लगे जिससे कार्य में उनकी रूचि कम और कम होती गई ... और उधर HO में पेंडिंग फाइल्स का अम्बार लगने लगा ....समय पर चलते प्रोजेक्ट्स पिछड़ने लगे ....ग्राहकों में असंतोष बढ़ा, बैंक्स का ब्याज भी बढ़ने लगा और १-२ प्रोजेक्ट्स की वायबिलिटी पर भी प्रश्नचिन्ह लग गया. एक साल बाद जब मैनेजमेंट को आभास हुआ तो सबसे पहले ..कमिटी "बिदा" हुई और फिर कवायद शुरू हुई चीजे सही में सही करने की.
देर हो चुकी थी ... प्रोजेक्ट्स आज भी अपूर्ण है ... ग्राहक अदालत के दरवाज़े पर दस्तक दे रहे है ...दो प्रोजेक्ट्स बैंक ने सीज कर लिए है ... नीलामी होने वाली है.भ्रष्टाचार हुआ नहीं था अत: किसी कर्मचारी के विरुद्ध कोई निर्णायक कार्यवाही नहीं हो सकी. .. कंपनी के निष्ठावान लोग दुखी है ..प्रयासरत है ...कमिटी के लोग ..नई नौकरी ढून्ढ कर जा चुके है ... किसी और कंपनी का 'लोकपाल' बनने के लिए.  
ये प्रैक्टिकल और भुगता हुआ उदाहरण है जो किसी विचार विशेष का पिछलग्गू नहीं है .... किसी 400 कर्मचारियों की कम्पनी का ये हश्र हो सकता है ...इसी निरंकुशता के चलते तो सोचिये ..यदि रक्षा सौदे रुक गए ..नए विमानों की खरीदी रुक गयी, इमानदार अफसर निर्णय लेने से कतराने लगे ...तो क्या होगा ??? क्यूँ की ऊँगली तो हर बात पर उठाई जा सकती है .... धोबी के कहने पर सीता को वनवास भेजने के उदाहरण उपलब्ध है इस देश में.
लोकपाल बिल पास हो गया है ... असीमित अधिकार भी नहीं है ... ठीक है .... शायद मेरे बुढ़ाते बुढ़ाते ..किसी सुपर लोकपाल के लिए आन्दोलन और संसद की बहस भी सुनने को मिले, लो 'लोकपाल' के भ्रष्टाचार पर लगाम लगा सके.   
मेरी वाक्य रचना त्रुटी पूर्ण हो सकती है, शब्द चयन गलत हो सकता है .... अपेक्षा है ..भाव का सम्प्रेषण कर पाया हूँ.   
सादर 

   

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 20, 2013 at 7:53am

धन्यवाद उमेश कटारा जी, डॉ गोपाल नारायण जी, जीतेन्द्र "गीत" जी, गिरिराज भंडारी जी, शुभ्रांशु पाण्डेय जी      


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 20, 2013 at 3:17am

विचार विशेष और सिद्धांत विशेष को संपोषित करती एक ऐसी लघुकथा जो अन्यथा बहस की भरपूर गुंजाइश रखती है.

इससे विलग किंतु एक समानान्तर तथ्य सादर साझा करना चाहूँगा.

संयुक्त रशिया से तब कई-कई सार्थक-निरर्थक पत्रिकाएँ आदि निकला करती थीं. थोक में ! बिना मोल, सहज उपलब्ध ! जिनका दबदबा भारत जैसे देशों में भी खूब हुआ करता था. कई उन्हें बड़े चाव से पढ़ते भी थे, लेकिन अधिकांश उन पत्रिकाओं के पन्नों से अपने बच्चों के पाठ्य-पुस्तकों की ज़िल्द लगाने का काम लेते थे ! या, छोटे व्यापारी उन पन्नों से बेहतरीन ठोंगा आदि बनाने का काम लेते थे ! लेकिन उन पत्रिकाओं का सटीक उद्येश्य हुआ करता था  --सिद्धांत विशेष की डुगडुगी पीटना और पिटवाना !

उन्हीं पत्रिकाओं में से एक में एक कथा छपी थी तब. हल्के में उसका ज़िक़्र कर दूँ तो अन्यथा न होगा.


सर्कस में एक शेर था. सुन्दर से कमानीदार पिंजरे में क्या शान से रहता था ! काम में उसका काम था, समयानुसार करतब दिखा देना. बस. फिर तो भरपेट खाना खाता. और खाना भी क्या ! गोश्त के लजीज़-लजीज़ टुकड़े ! वो भी हर दिन बदल-बदल कर. शान की ज़िन्दग़ी थी.

तभी उसकी दोस्ती एक कौए से हो गयी. उन्मुक्त उड़ने वाला पक्षी ! कौए ने उस शेर के दिल में बाहर की उत्फुल्ल दुनिया और उन्मुक्तता और स्वतंत्रता की वो आग लगायी कि शेर आखिर एक दिन जंगल में निकल भागा. लेकिन जंगल तो जंगल ठहरा. हर बात के लिए ज़द्दोज़हद ! खुद पर भरोसे की आदत तो थी नहीं उसे. सो, कुछ ही दिनों में लगा भूखों मरने ! हड्डियाँ निकल आयीं उसकी. मरता क्या न करता, लुटा-पिटा वापस सर्कस में आया और चुपचाप खुद को पिंजरें में बन्द कर लिया. रिंग मास्टर ने उसे खूब फटकारा. लेकिन उसके दिन फिर गये थे. भरपूर खाने-पीने से उसकी गयी ललाई कुछ ही दिनों में फिर से निखर आयी थी. शेर की ज़िन्दग़ी वापस सँवर गयी थी !

इस कथा से तब का एक तथाकथित राष्ट्र क्या संदेश देना चाहता था ? उस पत्रिका के माध्यम से समाज में कैसे मंतव्य घुलाये जा रहे थे ?
इस तरह की किसी राजनैतिक विचारधारा का संपोषण करना दुधारी हुआ करता है. सदा से ! आज न वो रशिया रहा, न वैसी पत्रिकायें रहीं !

हम विचारों से सुगढ़ व्यवस्था की प्रासंगिकता और अप्रासंगिकता पर संकेन्द्रित रहें. न कि किसी वाद विशेष के चारण हो कर लगातार अव्यावहारिक, डॉग्मैटिक होते चले जायँ.

सादर

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on December 19, 2013 at 8:31am

 जब हमारे देश में ' लोकपाल बिल ' के लंबित मसले को देखकर देवताओं ने शीघ्रता से ' देवपाल बिल ' लागू कर दिया, इससे तो यह समझ आता है की अब इन्सान से देवता भी घबराने लगे है, उन्हें पता है कि इस इन्सान का कोई विश्वास नहीं किस करवट बैठ जाय.

सच! बहुत कटाक्ष, बधाई स्वीकारे आदरणीय निलेश जी

Comment by Shubhranshu Pandey on December 17, 2013 at 9:12pm

आदरणीय निलेश जी, 

एक गंभीर मुद्दे को आपने बडे़ ही रोचक ढंग से उठाया है.

काम करते समय उसके ढंग पर ध्यान देना जरुरी है, लेकिन किसी काम पर केवल करने के ढंग या किसी अंदेशे के कारण रोक लगने लगे तो काम प्रभावित तो होता ही है, करने वाला भी प्रभावित होता है.

शायद इसी लिये अंग्रेजी में ध्यान देने के लिये  keep an eye on  कहा जाता है. अगर दोनो आंख रख देंगे तो काम ही नहीं हो पायेगा...हा...हा...हा...

बहरहाल, एक सुन्दर कथा.

सादर.

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 17, 2013 at 3:57pm

 आदरणीय , कोई भी कानून कभी भी किसी को ज़ुर्म करने से नही रोक सका है और न कभी ये रोक सकेगा भविष्य मे , ज़ुर्म रुकता है तो  केवल अच्छे संस्कार से । कानून ज़ुर्म के बाद सजा के लिये होता है । सुन्दर रचना के लिये आपको बधाई ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 17, 2013 at 3:09pm

नूर भाई

जब ईश्वर ही लाचार  है i तब हम बापुरो की क्या बिसात है  ? लोकपाल कोई जादू की छडी  लेकर नहीं आएगा  i वह भी भ्रष्ट व्यवस्था  का एक अंग ही  होगा  i हमें तो उसका उद्भव और विकास ही देखना है i अस्तु  -----

Comment by umesh katara on December 17, 2013 at 11:09am

संदेहास्पद वातावरण है देश में इस वक्त 

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