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तीर चलते हैं मगर

तीर चलते हैं मगर तरकश नजर नहीं आता
चाहत में निगाहों को सफर नजर नहीं आता

अंजाम जान के भी पलकों में घर बनाते हैं
क्यूँ दिल टूटने का उन्हें हश्र नजर नहीं आता

आसमान को छूने की तमन्ना करने वालो
क्यों ज़मीं पर तुम्हें टूटा पंख नजर नहीं आता

लगा दिया इल्जाम बेवफाई का उनके सर
क्यूँ आँख से गिरा अश्क नजर नहीं आता

जिस तकिये पे मिल कर गुजारी थी रातें
उस भीगे तकिये का दर्द नजर नहीं आता

सुशील सरना


मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on December 26, 2013 at 9:49am

आसमान को छूने की तमन्ना करने वालो
क्यों ज़मीं पर तुम्हें टूटा पंख नजर नहीं आता

बहुत खूब, क्या बात कही आदरणीय शुशील जी, हार्दिक बधाई

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 26, 2013 at 6:36am

आदरणीय सुशील भाई

जिस तकिये पे मिल कर गुजारी थी रातें
उस भीगे तकिये का दर्द नजर नहीं आता

                  बहुत खूब , बधाई

Comment by coontee mukerji on December 25, 2013 at 9:23pm

तीर चलते हैं मगर तरकश नजर नहीं आता
चाहत में निगाहों को सफर नजर नहीं आता.........बहुत सुंदर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 25, 2013 at 4:45pm

आदरणीय सुशील भाई , सुन्दर भाव पूर्ण रचना के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥

कृपया ध्यान दे...

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